कविताअन्य
शीर्षक:इन्सान
इन्सान पर भरोसा करना है बड़ा मुश्किल,
इन्सान सा दिखकर भी इन्सान नही है,
आवरण में सच के लिपटा हुआ है लेकिन,
सच से कहीं भी उसकी पहचान नहीं है,
खुद को समझे वो है चालाक इतना जग में,
जैसे कि लोमड़ी है इन्सान नहीं है,
सूरज छिपाता वह है रूमाल लेकर अपना,
जिसको छिपाना जग में आसान नहीं है,
दिल मेरा ये कहता है थोड़ा करूँ मैं शिकवा,
वह रोज का है अपना मेहमान नहीं है,
पर लायक नहीं वो इसके शिकवा करूँ मैं जिससे,
जज्बातों की शायद उसे पहचान नहीं है,
व्यर्थ की तू चिन्ता करता है दिल जहां में,
इन्सान ही तो है वो भगवान नहीं है।
अमलेन्दु शुक्ल
सिद्धार्थनगर उ०प्र०