लेखसमीक्षा
'' बेटियों की नर्म पलकों में, शादी के लहंगो की डोरियां, बचपन से उलझा दी जाती हैं, जवान होते होते,ये कच्चे धागे, एक झीनी झीनी बुनाई करते हैं. ''..
(द्विवेदी विला से)
मधु जी का लेखन अद्भुत है..! उनके लेखन में, उनका सौम्य, अतिसंवेदनशील व्यक्तित्व भली भांति परिलक्षित होता है..
उनका बहु प्रतीक्षित उपन्यास '' द्विवेदी विला '' हाथों में है..
मधु जी का लेखन पढ़ना,हमेशा.. अपने आप में एक विलक्षण और सुखद अनुभूति देता है..
उपन्यास का प्रारम्भ, बारिश में डूबे जगदलपुर से होता है.. सुधा के घर पुने से लड़का और उसका बड़ा भाई दमोह से ,लम्बी यात्रा कर के उसको देखने आ रहे हैं.
लड़के की बहुत अच्छी नौकरी है.हर प्रकार से योग्य है, किन्तु उसके माता-पिता जीवित नहीं हैं, इसलिए सुधा की मां विवाह सम्बन्ध के लिए तैयार नहीं हैं...! कोई बहाना बना कर मना कर दिया जाता है..
सुधा को भी यह अच्छा नहीं लगता..
लेकिन जहाँ जगदलपुर में विवाह तय होता है, वहां सब ठीक तो दिखता है लेकिन वर पक्ष की कुछ गतिविधियाँ विचित्र दिखती हैं.. उस घर के तीनों सदस्य अलग अलग बात करते हैं.
किन्तु वर, विरल, दिल्ली से रोज़ सुधा से बात करता है.. अतः शंकाएं नहीं उठती..
सुधा की इच्छानुसार '' ग्रे कलर का लहंगा '' उसकी सास तय कर देती है..
किन्तु विवाह के वस्त्रों में लहंगा कहीं नहीं मिलता..
विवाह के बाद उसे पता चलता है कि कक्का, अम्मा और विरल तीन अजनबियों की तरह शापित '' द्विवेदी विला '' में रहते हैं..
घर में कक्का का ही निरंकुश शासन चलता है.
राजनांदगांव में सुधा का जीवन, परिस्थितियों से किसी तरह समायोजन करते हुए, आगे बढ़ता है..
बाद में विरल दिल्ली से वापस तो आ जाता है.. लेकिन सुधा की मुसीबतें कम नहीं होतीं..कक्का के कठोर शासन में वह और विरल न तो ठीक से साथ रह पाते हैं न ठीक से खा पी सकते हैं.. विरल बाद में, व्यवसाय बढ़ाने के लिए अकेला, रायपुर रहने लगता है.. केवल शनिवार, रविवार ही घर आता है, उसमें भी अक्सर फोन या कम्प्यूटर पर रहता है.
घर में प्रपौत्र यशु का आगमन होता है.. सुधा के कार्य बढ़ते जाते हैं..ऊपर नीचे सीढ़ियां चढ़ना, उतरना, किचेन में घंटो खड़ा रहना, स्कूल की ड्यूटी..
कक्का को हमेशा फूली हुयी, '' गरम रोटी ही चाहिए.. ''
सुधा पूरे घर में चकरघिन्नी सी घूमती रहती है, अम्मा की मानसिक स्थिति और कक्का के दंभ के बीच.. केवल विरल के साथ व्यतीत कुछ समय ही, उसका एक मात्र संबल है..
कक्का का सुधा के प्रति, हमेशा असंवेदनशील व्यवहार..! पीने के लिए उनको रोज़ उबला हुआ पानी चाहिए, वह भी अपने सामने, 4 पर्तों में छना हुआ... सुधा यन्त्रवत, बिना किसी प्रतिरोध के, घर के सभी कार्य करती रहती है.
यशु भी धीरे-धीरे बड़ा होता है, उसका भी अलग सर्किल.. सुधा अकेले अपने '' स्वतः स्वीकृत '' , कर्तव्य पथ पर चलती रहती है..
उसने रेडियो के लिए कंटेंट लिखना भी शुरू कर दिया..
सुधा के जगदलपुर निवास के दौरान, अम्मा के कार्य कलापों से परेशान होकर, गांव चले जाते हैं..
अब पुनः सुधा का यहां रहना अनिवार्य हो गया..
कुछ वर्ष बाद सुधा की सास का, गांव में स्वर्गवास हो जाता है.. सुधा और विरल के शीघ्रता से पहुंचने पर भी
'' द्विवेदी साहब ''.. उनकी अन्त्येष्टि के लिए बेटे बहू की प्रतीक्षा नहीं करते..! सुधा को बहुत बुरा लगता है..!
राजनांदगांव लौटते ही, विरल रायपुर चला जाता है.. सुधा फिर अकेली हो जाती है..
सुधा पास की, स्वामित्व वाली एक ज़मीन पर '' बुटीक '' खोलने का विचार करती है. यहां भी उसको अकेले ही दौड़ - भाग करनी पड़ती है..!
साइट पर चोरी होने पर, चौकीदार ' ढाल सिंह' और ' भगवती' का प्रवेश होता है..
सुधा निर्माण - कार्य की प्रगति से कुछ उत्साहित होती है .. शाम की थाली में कक्का को भी 'हलवा' मिलता है.. हालांकि आपसी संवादहीनता, से उन्हें कारण ज्ञात नहीं होता..
कार्य की प्रगति के बीच.. सुधा की, ढाल सिंह और भगवती से घनिष्ठता होती है वह इन दोनों की पारिवारिक कठिनाइयों से परिचित होती है. उसके निवारण के प्रयास भी करती है.. उसका उन दोनों के साथ कुछ अच्छा समय व्यतीत होता है..
सुधा को ढाल सिंह की पत्नी सावित्री की दुखद म्रत्यु और उसके बच्चों के विषय में पता चलता है. ढाल सिंह स्वयं अनियमित खानपान के कारण लीवर की गम्भीर बीमारी से ग्रस्त हो जाता है.
सुधा विरल की नज़र बचा कर, हर प्रकार से ढाल सिंह की सहायता करती है..
उसकी सोनोग्राफी के लिए सहायता न कर सकने से, अपराध बोध से ग्रस्त भी हो जाती है..
ढाल सिंह का न रहना सुधा और भगवती को निढाल कर देता है..!
सुधा की कविताएं और लेख, पत्रिकाओं में स्थान और प्रशंसा पाते हैं..!
कक्का और उनके मित्रों के बीच भी वे प्रशंसित होते हैं..
यशु के भी बोर्डिंग जाने का समय आ जाता है..!
सुधा भी आसाम की पत्रिका के सम्पादक को, अपने ज्वाइन करने के सम्बन्ध में मेल कर देती है..!
यशु के बोर्डिंग जाने पर वह, आसाम चली जाएगी. यशू कक्का को इस विषय में सूचित कर देता है.
सुधा अश्रु - पूरित नयनों से, घर के कमरों में घूम कर.. अपनी ग्रहस्थी से विदा लेती है..
उपन्यास का अन्त अत्यंत मर्मस्पर्शी और विषाद-युक्त है..कक्का के पैरों पर, सुधा के झुकने पर, वे अपनी दोनों हथेलियां, उसके सिर पर, स्नेहवश रख देते हैं..!!
द्विवेदी विला और रोटियों की गन्ध पीछे छूट रही हैं..!!
थोड़े शब्दों में '' द्विवेदी विला '' की विशेषताएं बताना सम्भव नहीं है.. प्रत्येक द्रष्टि कोण से यह एक अविस्मरणीय रचना है.. इसमें असंख्य किशोरियों की वह व्यथा भी शामिल है, जिसमें उन्हें उच्च शिक्षा के अवसरों से वंचित रख कर, उनके भाइयों को वरीयता दी जाती है.
' हिन्द युग्म' द्वारा प्रकाशित यह उपन्यास अमेजन और ' साहित्यारूषि ' ( फोन 77278 74770)
पर उपलब्ध है.
कमलेश वाजपेयी