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समाधान की ओर चलें श्मशान की ओर नहीं
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हम हर बार समाधान के बजाए श्मशान का रास्ता क्यों चुन लेते हैं | क्या वहीं जाकर हमें समाधान के रास्ते मिलेंगे | या चिर शांति मिलेगी | बड़े बहादुर हैं हमलोग सत्य की लड़ाई को शान की लड़ाई में तब्दील करने में |
कोई भी व्यक्ति बस लड़ाई की बातें कर आज बड़ा सुखी हो जाता है | और मुद्दे वहीं के वहीं रह जाते हैं | इसमें व्यक्ति से लेकर हमारी संस्थाएँ तक शामिल हैं | ताजा उदाहरण लीजिए कंगना राणावत का | उन्होंने मुंबई फिल्म इंडस्ट्री के कुछ मुद्दे उठाए जैसे ड्रग्स माफियाओं से फिल्म इंडस्ट्री के लोग तथा नेताओं से संबंध के विषय में | अब अगर सरकार संवेदनशील होती तो इसकी तह में जाकर इसका पता लगाती और ऐसे पतन की ओर ले जाने वाले गठजोड को सामने लाती और एक स्वस्थ माहौल को नष्ट करनोवाले कारणों की खोज कर उसका निदान करती | पर यह आज एक लड़ाई में तब्दील हो गया | कुछ दिनतक लड़ाई चलेगी | कोई हीरो तो कोई जीरो बन जाएगा | और समस्या वहीं धरी की धरी रह जाएगी | ऐसी क्या वजह है कि समस्याओं की ओर ध्यान दिलानेवाले व्यक्ति दुश्मन बन जाते हैं , सरकार के लिए कभी कभी समाज के लिए भी | हम उन समस्याओं की तरफ क्यों नहीं देखते |
बस हम उसकी समस्याओं को कभी राज्य की अस्मिता तो कभी देश की अस्मिता पर हमला बताकर उसे प्रताड़ित करने में लग जाते हैं | और हद तो तब हो जाती है जब राज्य भी इसमें शामिल हो जाता है |
आज लोगों का भरोसा सरकार से कानून से उठ गया है | लोगों के मन में यही बात है कि पैसेवाले न्याय खरीद लेंगे | और चुपचाप वे अन्याय सहते रहते हैं पर न्यायालय की शरण में नहीं जाते क्योंकि उनके मन में यह घर कर गया है कि न्यायालय में उसकी बात नहीं सुनी जाएगी | न्याय केवल धन की भाषा समझने लगा है | अमीर इस स्थिति का लाभ उठाकर लोगों का शोषण करते रहते हैं और उनके मौलिक अधिकारों को भी कुचलते रहते हैं |
उन्हें कोई समाधान नहीं पकड़ाते |
कोई किसी का धन हडप कर जाता है ,कोई श्रम हडप कर जाता है | पर उस सिस्टम पर सवाल करनेवाले को समाधान नहीं मिलता | उन्हें उनका न तो जमा किया गया धन मिलता है न श्रमिको को उनके श्रम की कीमत |
ताजा उदाहरण लीजिए सुशांत सिंह हत्या केस | कंगना राणावत ने कुछ सवाल उठाए तो प्रशासन ने उन सवालों की तरफ नहीं देखा बल्कि कंगना के पीछे पड़ गयी | अब यह मुद्दा बस मूँछ की लड़ाई बन गयी | चूँकि यह बड़े लोगों का मामला है इसलिए मीडिया और सारा तंत्र इसमे लग गया ,और सब लोग जान गए | फिर भी इसकी खोज में कोई नहीं जा रहा कि क्यों यह घटना हुई | अगर इसकी खोज की जाती तो कम से कम आगे ऐसी घटना न हो और कोई देश का नागरिक यूँ ही जान न गँवाए यह तो सुनिश्चित किया जा सकता था |
कई लोग आते हैं और कम्पनियाँ खोलकर बैठ जाते हैं लोगों को ज्यादा ब्याज का लालच देकर पैसा जमा करवाते हैं और लेकर चलते बनते हैं ,या कम्पनी चलती भी रहे तो न वहाँ काम करनेवालों को वेतन देते हैं और न जमाकर्ताओं को पैसा | जबतक बस चले पब्लिक से पैसा लेते रहते हैं | पर उनपर कोई कारवायी नहीं होती | बहुत हुआ तो उन्हें जेल में डालते हैं | क्या इससे जमाकर्ताओं के पैसे लौट पाते हैं | हम क्यों ऐसी स्थितियाँ बनने देते हैं ,क्यों नही हम ऐसे हालत पैदा करनेवाली व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगाते और उसे रोक पाने में सक्षम होते हैं |
कोई भूखा है तो क्यों है हम न तो जानने की कोशिश करते हैं न भूख का समाधान निकालते हैं | और वह भूख से मर गया तो आँसू बहाते हैं और फिर केस चलाते हैं | जिससे वह आदमी कभी जिंदा नहीं हो पाता | जरूरत है ऐसी स्थितियों को पैदा न होने दिया जाए ऐसी व्यवस्था का | जहाँ सबकी आवाज सुनी जाए | और अगर उसमें कुछ तथ्य हों तो उसे उपयोग में लाया जाए |
किसी का घर उजाड़ने की कोई हिम्मत न कर पाए |
उजड़ जाने पर उसे सजा देकर ही हम क्या पा लेंगे |
हम लड़ाई की भाषा भूलकर अनुसंधान और समाधान की भाषा बोलें तो ज्यादा प्रभावी और अच्छा होगा और यही एक स्वस्थ समाज की नींव डाल पाएगा ,जहाँ न्याय व्यवस्था सबके हित की चिंता करेगी | न कि उसमें लगे लोगों के लिए पैसा बनाने का साधन भर बन कर रह जाएगी |
कृष्ण तवक्या सिंह
10.09.2020.