कविताअतुकांत कविता
प्रेम विश्वास के बिना
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हम प्रेम की बातें करने से कहीं घबरा तो नहीं जाते |
इस पथ पर चलने में कहीं लड़खड़ा तो नहीं जाते |
क्यों प्रेम को ब्रह्म से जोड़कर
हम इसकी सार्थकता सिद्ध करते हैं
जैसे प्रेम के विरोध में नुकीले होते
अस्त्र की धार कुँद करने का प्रयास हो |
प्रेम को शाश्वत से ,सत्य से जोड़कर हम प्रेम को बचाना चाहते हैं
वे जो शायद प्रेम को नहीं जानते उन्हें उनकी भाषा में समझाना चाहते हैं |
प्रेम तो स्वयं में ही ब्रह्म तक पहुँचने का मार्ग है |
यह शाश्वत और अस्तित्व की पहचान है |
क्या यह प्रेम मे जीनेवाले को अहसास नहीं हुआ |
अगर अब भी वह
विश्वास करना चाहता है
तो उसने प्रेम को जाना नहीं
उस उत्सव ,उस आनंद को पहचाना नहीं
अब प्रेम को किसी विश्वास के
लिवास की जरूरत नहीं |
यह स्वयं से खड़े होने को उन्मत हो चला ,किसी बाँस की जरूरत नहीं |
कृष्ण तवक्या सिंह
09.09.2020.