कवितागजल
मैं वीरानों कि वीरानी रहा हूँ
मुसलसल ख़ामुशी से जी रहा हूँ
अकेलापन अकेला कब रहा है?
अकेलेपन का मैं साथी रहा हूँ
सज़ा इससे बड़ी अब क्या मिलेगी
मुझे मरना था पर मैं जी रहा हूँ
मुझे देखे से नज़रें जो झुका ले
उसी लड़की का मैं माज़ी रहा हूँ
जिसे आँसू कहा करती है दुनिया
वही इक ज़ह्र कब से पी रहा हूँ
मुहब्बत से मिरी बनती भी कैसे
मैं तो बचपन से ही बाग़ी रहा हूँ
ग़ज़ल कहना मिरा पेशा नहीं है
ग़ज़ल कह ज़ख्म अपने सी रहा हूँ
इलाही क्या मैं प्यासा ही मरूँगा
सभी प्यासों को मैं पानी रहा हूँ