कविताअतुकांत कविता
माहिया कुछ पंक्तियां
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पूरा रास्ता नाप लिया है
फिर ये मेरे क्यों
पांव फिसल गए।
पानी बिना तड़पते देखें
कितने पौधे
फूल और कलियां।
रस्ते पर अब भीड़ बहुत है
सुनी पड़ी हैं
कितनी गलियां।
अंदर तन में आग लगी है
मन को कैसे
कर लूं काबू।
खाते रहे बादाम और काजू
तोंद निकल गई
पेट निकल गए।
जीवन बीते कष्ट में कितने
पर तिजोरी में
पैसे सड़ गए।
नर्तन किर्तन भजन भूल गए
मंदिर में जब
पड़ गए ताले।
प्रेमी युगल राह में मिलते
देखे राहगीर
पड़ोसी जलते।
बेशक उसके तन पर कितने हैं
गौर वर्ण हैं
मैले कपड़े।
जाने किस विधि मिले गुसाईं
सुबह में उठिए
थानेदार से मिलिए।
©भुवनेश्वर चौरसिया "भुनेश"
बहुत खूब आपकी रचना आनन्द से भर देती है।
आपके ये शब्द बहुत अनमोल हैं जो लेखक को हौसला देता है उम्मीद है और बेहतर लिखूं सादर प्रणाम।