कवितानज़्म
*आदमी को आदमी ही रहने दो*
मुकम्मल हयात करे बसर ये नहीं तबियत बंदे की,
फ़रिश्ता बनकर जिये ऐसी नहीं फ़ितरत बंदे की!
आदमजात को आदमीहि रहनेदो खुदा न बनाओ,
इसमें हैं खतरे बहुत गर बदल जाए नियत बंदे की!
शैतान का न भगवान का करनेदो किरदार उसको,
काफी है कि इन्सान की बनी रहे हैसियत बंदे की!
शुक्र है कि मुफ़ीद है अभी तक खैरियत बंदे की,
और न ज्यादा करो तलब बशर कैफ़ियत बंदे की!
डॉ.एन.आर. कस्वाँ "बशर"
०२/११/२०२३