कवितानज़्म
*मुस्कुराने में क्या जाता है*
अफसोस आदमी को खा जाता है ,
मुस्कुराने में क्या जाता है।
हंसकर बे-सबब बे-वजह शर्माता है,
मुस्कुराने में क्या जाता है।
गमों से बेहिश बे-हिसाब घबराता है,
मुस्कुराने में क्या जाता है।
वक़्त-ए-हिज्रो-वस्ल आता-जाता है,
मुस्कुराने में क्या जाता है।
रहमत-ओ-करम है न करिश्मा कोई,
खुशी से तंगी कौन पाता है।
ग़रीब तुर्बते-गुरबत में जीता मरता,
मुफ़लिसी में आता-जाता है।
गुज़र जानी है बशर रो-धोकर फिर,
मुस्कुराने में क्या जाता है।
©डॉ.एन.आर. कस्वाँ "बशर"
२०/१०/२३/सरी