कविताअन्य
अभिलाषा थी
अधरों में चुम्बन की अभिलाषा
बाहों में भरने की अभिलाषा
अभिलाषा दृग में रखने की
तेरे अंतश में बसने की
अभिलाषा थी
अभिलाषा तुझको पाने की
थी आशा तुमको अपनाने की
अभिलाषा मन में बसने की
हृदयंगम में तुझको रखने की
अभिलाषा थी
एक दूजे के अंतश वाशी बन, मधुरिम गीत लिखा करते
बैठ के दोनो उद्यान सघन में, मन का गीत लिखा करते
अभिलाषा थी
सुन्दर दिखने की
हल्की बारिश में उड़ने की
संगीतों में पड़ने की
गीत काव्य में गढ़ने की
अभिलाषा थी
तटिनी के तट आने की
हाथों से मक्खन खाने की
बंशी की तान सुनाने की
अभिलाषा हेतु कृष्ण गया,पर राधा वहां नहीं आई!
मैं तो रूप कृष्ण का ही था,पर तुम राधा बन न पाई
अभिलाषा थी-
अन्तिम रास रचाने की
एक दूजे में रम जाने की
संग मधुरिम सभा सजाने की
अभिलाषा थी-
छिपे रहस्य दिखलाने की
अभिलाषा तुझको अपनाने की
मन की बात बताने की
इच्छा थी सब बात कही पर,सुनने वाला नहीं सजीव
जो बातों को सुनते थे, वो बनकर बैठे थे! निर्जीव
सोचा था इच्छा पूरी होंगी! कभी पुण्य जागेगा
मन्दिर में मन्नत मांगे थे,कभी तो ईश्वर चाहेगा
हर्षित अवस्थी मानस
"संवेदना"
अभिलाषा सर्ग से