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*जीने के हुनर भूल गए * - Dr. N. R. Kaswan (Sahitya Arpan)

कवितानज़्म

*जीने के हुनर भूल गए *

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*जीने के सब हुनरभूल गए*

गली-कूचे साथी-संगी दिवारो-दर भूल गए
परवाज़ क्या भरी के परिंदे शजर भूल गए!

काफ़िले निकल गये कि गर्दो -ओ-गुबार में
हयाते-मुस्त'आर तिरा हम सफ़र भूल गए!

राह -ए-अनजान पर जब निकल पड़े बशर
सफ़र- ए- हयात की हम रहगुज़र भूल गए!

फ़रेब से जमाने के न रहा था सरोकार कभी
जीस्त के तजुर्बात से जीने के हुनर भूल गए!

डॉ.एन.आर.कस्वाँ "बशर"
२०२३/०९/३०/सरी

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