कवितानज़्म
*जीने के सब हुनरभूल गए*
गली-कूचे साथी-संगी दिवारो-दर भूल गए
परवाज़ क्या भरी के परिंदे शजर भूल गए!
काफ़िले निकल गये कि गर्दो -ओ-गुबार में
हयाते-मुस्त'आर तिरा हम सफ़र भूल गए!
राह -ए-अनजान पर जब निकल पड़े बशर
सफ़र- ए- हयात की हम रहगुज़र भूल गए!
फ़रेब से जमाने के न रहा था सरोकार कभी
जीस्त के तजुर्बात से जीने के हुनर भूल गए!
डॉ.एन.आर.कस्वाँ "बशर"
२०२३/०९/३०/सरी