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नीर क्षीर विभेद का विवेक - umesh shukla (Sahitya Arpan)

कवितागीत

नीर क्षीर विभेद का विवेक

  • 98
  • 4 Min Read

अब आत्मनिर्भर मैं कैसे बनूं
असंख्य लबों पर ये सवाल
डिग्रियां पूरी करने वालों को
वर्तमान दशा से बहुत मलाल
कभी देश को बड़ी संख्या में
दिया करते थे जो रोजगार
उनके गले पर ही लटक रही
अब अनिश्चितता की तलवार
बैंकिंग,बीमा,रेलवे, पीएसयू
हर तरफ लाखों पद हैं रिक्त
पर उनको भरने में नहीं दिखी
सरकार की कोई भी आसक्ति
बस चुनाव के समय हो जाते
कुछ जगह भर्तियों के ऐलान
परीक्षा के बाद भी लंबी अवधि
तक नहीं देता कोई भी ध्यान
पांच दशक में सबसे अधिक है
वर्तमान में बेरोज़गारी का रेट
फिर भी सरकारों के नुमाइंदों
को सब कुछ दिखे अप टू डेट
उनके लबों से फूटता रहता है
सदा सत्ता का ही अभिमान
उन्हें नजर नहीं आता कि कैसे
बिखर रहा युवाओं का अरमान
हे ईश्वर मेरे देश के युवाओं को
दो नीर क्षीर विभेद का विवेक
मतदान के समय करें वो सब
अपने हितैषियों का अभिषेक

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