कविताअतुकांत कविता
सच छूट गया कहीं
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मैं अपने सच को छुपाने
और आपके सच को
पटल पर लाने नहीं आया हूँ |
मैं तो खोजने चला हूँ सच की
उन खामियों को
जिसके कारण इसे छुपाने को हम मजबूर होते हैं |
एक आवरण की तलाश होती है हमें
खुद से ही खुद को ढ़ँकने के लिए
एकांत तलाशता रहता हूँ
खुद को बहकने के लिए |
क्यों हम अपनी जरूरतों को
जो प्रकृति से हमें मिली है
उसे दुनियाँ के सामने रखने से घबराते हैं
क्यों सच को छुपाने को झूठ मुँह पर लाते हैं |
और सच के महान खोजी बनकर
दूसरों के वही सच उजागर करने की मंशा सजाते हैं |
कहीं ऐसा तो नहीं कि
कि हम अपने लिए दुनियाँ को अनुकुल
और दूसरों के लिए प्रतिकूल बनाना चाहते हैं |
अपने को स्थापित कर ,दूसरों को गिराना चाहते हैं |
सच की लड़ायी सदा से ,
इसी राजनीति में उलझकर दम तोड़ती आयी है |
दुनियाँ को हमने अपनी प्रकृति के अनुकुल नहीं गढ़
खुद को छुपाने का गढ़ बनाया है |
इसी तरह की संरचना से अपना घर बनाया है |
जहाँ मनुष्य नहीं ,मनुष्य जैसा दिखता
कुछ प्राणी निवास करते हैं |
एक दूसरे के बीच दीवार डालकर
एक ही घर में अलग प्रवास करते हैं |
सच पर परदा डालकर कर
सच की खोज में लग जाते हैं |
दुनियाँ को दिखाने को एक झूठ चेहरा बनाते हैं
जिसमें आकर्षण हो |
मजबूत इतना कि कहीं
सच से घर्षण दिख न जाए
एक एक छिद्र बँद कर जाते हैं
जहाँ से सच बाहर झाँक न पाए |
सच को ढ़कने का हर इंतजाम इतना मुकम्मल हो
कि हमें कोई आँक न पाए |
फिर हम सच होने का दावा करते हैं
सच की आड़ में झूठ का दिखावा करते हैं |
और खुद से ही लड़ते
बिता देते हैं हम सारा जीवन |
अंत में पता चल पाता है
कहाँ हम जीवन जी पाते हैं |
स्वयं को नकारकर ,न जाने क्या क्या स्वीकार लिया
न जाने जीवन की लडाई ,कहाँ हार लिया |
मिल जाता यह फिर से
तो हम इसे सँवार लेते
बीत गया जीवन ,पर बचपन याद आता रहा
वहीं पर तो जीवन रूक गया था |
फिर तो बस शरीर ने अपना रूप बदला
मैं तो वहीं पर अभी भी हूँ |
जहाँ से सच का साथ छूटा
जीवन का डोर टूटा
बस उस डोर को खोजता चला आया इतनी दूर
पर अब नहीं मिलता
बस लगता है बचपन लौट आता
फिर करते शुरूआत
पर कहाँ यह संभव है
बस तड़पाती सी रह जाती हैं याद |
कृष्ण तवक्या सिंह
06.09.2020