अतुकांत कविता
मत बांधो
अब बांधो सीमा में न और मुझे।
मुझको कुछ और विखरने दो।
वुझ जाने दो ये जलता दीपक!"
मुझको अब और सुलगने दो ।
थी आशाएं, कुछ देखे थे सपने।
क्यों अलग हुए सब अपने !
पता नहीं ये कमियां मुझमें थी।
या मैं ही था कमियों से निर्मित।
अब जैसा हूँ मैं हर्षित हँ साथी ।
तुम मुझको और सिमटने दी ।।
जय प्रकाश श्रीवास्तव