कहानीसामाजिक
"आज क्या उठा लाई?" उर्मी के हाथ में पकड़ा बॉक्स देख कर मां ने पूछा। "अभी कूरियर वाला दे कर गया है। किसी बृजेश नाम के आदमी ने आपके लिए गिफ्ट भेजा है।" उर्मी ने बॉक्स मां को पकड़ा उनके साथ ठिठोली सी की मगर मां की गंभीर मुखमुद्रा देख चुप हो गई। मां बॉक्स में से सामान निकाल कर एक एक चीज़ को बहुत प्यार से छू छू कर देख रही थी।
बड़ा अजीब सा सामान था बॉक्स में ज्यादातर वे चीज़ें जो यात्रा वृत्तांत लिखने वाले लोगों के पास होती हैं। "ये बृजेश कौन हैं मां? इन्होंने ये सामान हमारे यहां क्यों भेजा?" उर्मी ने बॉक्स में रखी डायरी निकाल ली और उसके पन्ने पलटने लगी। पूरी डायरी ख़ाली थी बस आखिरी पन्ने पर लिखा था, 'खुदको ढूंढ़ने निकला था! मगर ताउम्र कहीं पा न सका। आज जाते जाते अपना सर्वस्व तुझे सौंपता हूं।'
"ये सारा सामान कभी मैंने ही खरीदा था उसके लिए। कभी वह मेरी ज़िंदगी का सबसे अहम हिस्सा हुआ करता था। तेरे नाना को भी हमारे रिश्ते से कोई एतराज नहीं था। बल्कि वे तो उसमें अपना बेटा देखते थे। पर उसे मुझसे ज्यादा यायावरी प्यारी थी। इसलिए मैंने उसे मुक्त कर दिया। पर उस आवारा पतंग को एक डोर से बांध भी दिया था कि शायद वह फिर आए पलट कर! और देख आ गया।" मां की आंखों में आंसू थे।
"ठीक है! पर इस सामान में मेरी बचपन की तस्वीरें क्यों हैं? किसने दी इन्हें?" उर्मी अब भी मां की बातों की कड़ियां जोड़ रही थी।
"मैंने! तू ही तो है वो डोर।"