कविताअतुकांत कविता
श्रीमती जी
एक बार श्रीमती को न जाने कैसे एक नेक विचार आया
कि हमारी कुछ रचनाओं को चूल्हे में जा जलाया
हम सकपाकाये,
और धीरे से बड़बड़ाए
भाग्यवान ये क्या कर डाला
मेरे जिगर के टुकड़े टुकड़े कर मेरे ही सामने जला डाला
तुम्हें मालूम है कवि दिन रात रोता है
तब जाकर कविता का जन्म होता है
वह तपाक से बोली
भाड़ में जाए तुम्हारी ये कविता
इस रद्दी को नहीं जलाती तो खाना कैसे बनाती ?
और आप भी आज देख लिया तो चिल्ला रहे हैं
आपको मालूम है
घर में जब जब इंधन का अभाव आया
मैंने इन्ही रचनाओं से काम चलाया ।
इनकी समझदारी हम आज समझ पाए
फिर भी होट फड़फड़ाए
भाग्यवान
क्या तुमने पहले भी रचनाओं को जलाया
वह तपाक से बोली
नहीं जलाती तो खाना कैसे बनाती?
क्या मैं स्वयं जल जाती ?
मगर स्वयं भी कैसे जलाती
एक महीने से केरोसिने की पिपियाँ ख़ाली हैं
कल से आटे के कनस्तर में भी कंगाली है
घी का डब्बा हो गया तली तक ख़ाली
और शक्कर आज उसने भी हड़ताल कर डाली
लेकिन आपकी समझ कहाँ आती है
कान पर जूँ तक कहाँ रेंग पाती है
कितनी बार समझाया
की एसा लिखो जो छप जाए बिक जाए सरकारी सम्मान पाए
मौक़े का फ़ायदा क्यों नहीं उठाते
मंत्री जी के रिश्तेदार क्यों नहीं बन जाते
साहित्य अकादमी में क्यों नहीं घुस जाते
यदि गधे को बाप बनाने से अपना उल्लू सीधा हो जाता है
तो उसमें आपका क्या जाता है
बाप तो फिर भी बाप कहलाता है
मगर हम उन्हें कैसे समझाते
की यह लेखनी स्वतंत्र है
जो उचित होगा लिखेगी
अंतिम क्षण तक संघर्ष करेगी
मगर तिजोरी की क़ैद कभी स्वीकार नहीं करेगी॥
डा योगेन्द्र मणि कौशिक