कवितालयबद्ध कविता
हंसी में लपेटकर वो दर्द बढाते हैं।
ऐसे हैं जमाने वाले कहाँ किसी को अपनाते हैं।
जलते हैं देखकर मुस्कुराहट होंठों की
बदलने वाले ऐसे भी बदलते हैं।
नए नए पैंतरे अपनाते है चक्रव्यूह रचने को
रखकर जख्म जुबान पर जो कोयला बन जाते हैं।
कोई कितना भी कोशिश कर ले बचने की
मोम को पिंघलाकर जला ही देते हैं। - नेहा शर्मा