कहानीसंस्मरण
' हरी कुल्फी '
बहुत समय पहले की बात है.. हम तीन दोस्त, रोज़ शाम को अपने-अपने आफ़िस से लौट कर, शहर के एक दर्शनीय स्थल '' मोतीझील '' पर एक बेंच पर मिलते थे.
सब पैदल ही जाते थे. टहलना भी हो जाता था और बातचीत भी हो जाती थी.
कभीकभी, किसी को आफ़िस से आने में देर हो जाती थी. तो जो जिस समय भी फ्री हो पाये , आने का प्रयास करता था.
हम लोगों के घर, एक दूसरे के पास ही थे. घंटे भर बैठ कर, बातचीत करके, साथ में वापस लौट आते थे. बाद में किसी किसी का ट्रांसफर आदि हो कर यह क्रम टूट गया.
एक बार हम लोग वहां बैठे हुए, बातचीत कर रहे थे कि वहां एक कुल्फी वाला आया, गर्मी के दिन थे. वे दोनों शायद उसकी कुल्फी, शायद पहले भी खा चुके थे.
उनमें से, एक ने उससे कुल्फी देने को कहा. कुल्फी का रंग कुछ हरा था.. ख़ैर. सबने अपनी अपनी कुल्फी खा ली. और बातचीत करते हुए वापस आ गए.
लौटते पर, मैं एक परिचित के घर चला गया. वहां बातचीत करते हुए. मुझे अजीब सा लगने लगा. उनका छोटा बेटा बातचीत में, मुझे हंसा रहा था. और मैं हंसता था तो हंसी रूक ही नहीं रही थी.
मैं ख़ुद भी यह महसूस कर रहा था. उन लोगों से भी बात करने में भी मुझे हंसी ही आ रही थी. वे हंसते हुए बोले क्या खाया था. मैने बताया कि एक हरी कुल्फी खायी थी. वे बोले ज़रूर उसमें भांग मिली होगी. वे हंसते हुए बोले कि दही खा लेना.
अपने बेटे से बोले, दादा को मत हंसाओ..! उसको मज़ा आ रहा था.. मैं हर बात में हंसा रहा था..
कुछ देर बाद मैं वहां से घर के लिए चल पड़ा.
रास्ते में एक परिचित मिल गये. मैं उनसे सामान्य, औपचारिक बातचीत ही करता था. मैंने सामान्य होने के लिए उनसे कुछ बातचीत शुरू कर दी, लेकिन वहां भी हर वाक्य के बाद, मुझे हंसी आ रही थी. अन्दर से हंसी रूक ही नहीं रही थी. खैर घर पास ही था. मैं घर पहुंचा.
मैं मां और पापा के लिए खाना लगाता था. मां अस्वस्थ रहती थीं. जब पापा का खाना लेकर, मैं कमरे में जा रहा था, मुझे लगा कि प्लेट उड़ रही है और दाल, सब्ज़ी भी.. बड़ी मुश्किल से मैं खाना रख कर, बिना बोले, किसी तरह मैं, वापस अपने कमरे में आ गया.. अजीब सी फीलिंग्स हो रही थीं.. लग रहा था कि मेरा अपने ऊपर कोई नियंत्रण ही नहीं है. किसी तरह से अपनी हंसी रोक पा रहा था. खा पी के किसी तरह लेट गया.
सुबह सब ठीक लग रहा था.
शाम को वही परिचित मिले, उनको बताया तो वे बोले कि कल मैं भी सोच रहा था कि वैसे तो कभी इस तरह से बात करते नहीं हो. आज क्या हो गया है.!
उसके बाद जीवन में शायद ही एक, दो बार भांग मिली हुई कोई चीज़ खायी होगी.
मोतीझील की वह हरी कुल्फी और उसके बाद का वह किस्सा
अक्सर याद आ जाता है.
कमलेश वाजपेयी