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" महानायक" - सीमा वर्मा (Sahitya Arpan)

कहानीसामाजिक

" महानायक"

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#शीर्षक
" महानायक"
अंक ... ३ 🌺🌺

मैं बेहद चिंतित अवस्था में यही सोचता हुआ जा रहा था।
कि माता-पिता दोनों के रहते हुए अनाथों सा जीवन जिया है मैंन।
पिताजी की छत्रछाया मुझे युवावस्था में प्राप्त हुई।
पिताजी तो स्वंय बहुत खुशी-खुशी राज्य का भार मेरे कंधों पर छोड़ कर गये थे।
तो क्या अब फिर से पिता का स्नेह और प्यार मुझसे छिनने वाला है ?
तब तक रथ अमात्य भवन के नजदीक जा पहुँचा है। जैसे वहाँ मेरा इंतजार ही हो रहा था। अमात्य के सेवक दौड़ते हुए आए और कहने लगे,
' आइए युवराज, अमात्य आपकी ही प्रतीक्षा कर रहे हैं। उनका आदेश है आपके आते ही अविलंब उनके पास ले जाया जाए '
क्या ?
मैं चौंक उठा मन पर आशंकाओ के बादल और घने हो गये।
वहाँ पहुँचते ही ,
'स्वागत हो युवराज '
'प्रणाम अमात्यजी '
' यशस्वी हों। सुखी रहें। '
लेकिन उनकी आवाज बिल्कुल मद्धिम है। चेहरे पर कहीं प्रसन्नता नहीं नजर आ रही है।
मानों कुछ कहना चाह रहे हैं पर कह नहीं पा रहे हों।
मैं धीरज खो बैठा ,
'अमात्य आप तो पिताश्री के साथ आखेट पर गये थे। क्या कोई अप्रिय घटना हुई है। जिसकी जानकारी मुझे नहीं है और अगर नहीं है तो क्यों नहीं है ? '
पिता व्यथित हो कर छटपटा रहे हैं। आखिर ऐसी कौन सी पीड़ा उनमें व्याप्त कर गयी है '
' शांत हो युवराज , इस परिस्थितियों में आपका विचलित होना अनिवार्य है '
वे भी और चुप नहीं रह सके।
' उनकी पीड़ा की मत पूछें युवराज ,मैं जानता तो हूँ पर आपके समक्ष कहने में संकोच अनुभव कर रहा हूँ'
'क्योंं ? '
अजीब असमंजस की स्थिति है।
मैं युवराज होने के अतिरिक्त उनका पुत्र भी हूँ। उनकी सम्पूर्ण रक्षा की जिम्मेदारी मेरी है '
" बस करें युवराज मैं सब जानता हूँ। बस आपका और उनके पिता-पुत्र के सम्बंध तो आड़े आ रहा है बीच में '
' अमात्य '
मेरी आवाज न चाहने पर भी थोड़ी गर्म हो गई।
' आप ये क्या कहना चाह रहे हैं।
मैं ?
एक युवा, योग्य और सक्षम पुत्र ही पिताश्री की राह का रोड़ा हूँ ?
आखिर उनकी ऐसी कौन सी बात है ?
जो सामाजिक शिष्टाचार और संकोचवश ही सही मेरे जानने योग्य नहीं है '
आप जानते हैं। उनकी आज्ञा ही मेरे लिए सर्वोपरि है।
अमात्य का हृदय चीत्कार कर उठा,
'क्षमा, क्षमा करें युवराज,
सही तो नहीं बता सकता पर जहाँ तक मेरा अनुमान है।
आपके भीषण त्याग की सीमा को महाराज पहचान ही नहीं पाए । आपकी बालिग उम्र और उनका आपके प्रति कर्तव्य ,
सारांश यह कि आप ही उनकी समस्त रोग के कारण हो '
मैं हतप्रभ!
जैसे गले में सर्प ने डंस लिया हो जहाँ खड़ा था वहीं ठगा सा खड़ा रह गया,
'मैं ? उनके रोग का कारण मैं हूँ ?
मैं तो स्वप्न में भी उन्हें कष्ट पहुँचाने की नहीं सोच सकता '
'नहीं , नहीं युवराज आपके व्यवहार या राज्य संबधी कोई कार्य नहीं अपितु ... '
कहते हुए अमात्य ठिठक गये थे।
' युवराज! दरअसल , महाराज की व्याधि अथवा रोग का कारण एक अत्यंत दुर्लभ सुंदरी कन्या है।
जिसके प्रेमपाश में महाराज बुरी तरह बंध गये है और उस सौन्दर्य को पाने की खातिर कामांध हो कर बुरी तरह तड़प रहे हैं '
ओहृ ... मैं पहले क्यों नहीं समझ पाया। हम भारतवंशियों को तो आरंभ से ही सुंदरियों के मोहपाश में बंध कर तडपने की वंशानुगत बीमारी है।
पर इस बीच में मैं कहाँ से आ गया ?
यह अमात्य क्या कह रहे हैं इसका सीधा सम्बंध मुझसे कैसे हो सकता है ?
'अमात्य जरा विस्तार से बताएं।
इस समस्त भारतवर्ष में ऐसा कौन सा राज्य अथवा राजकन्या है। जिसे चक्रवर्ती सम्राट शांतनु को स्वीकार करने में लज्जा है '
'नहीं, युवराज। वह कोई राजकन्या, गंधर्व , या देवकन्या नहीं है '
'फिर इतना कामांध किसने कर दिया ? '
मैं थोड़ा संभलते हुए बोल पड़ा।
' एक निषाद-कन्या ने '
' क्या ?' मेरी आंखें चौड़ी हो गईं। जिस व्यक्ति की पत्नी देवकुल की परम सुंदरी मेरी माँ 'गंगा ' रही वह निषाद-कन्या पर कामासक्त हो गया।
क्या यह चक्रवर्ती सम्राट को शोभा देता है ?
'क्या महाराज सब कुल,पद, मान-प्रतिष्ठा भूल चुके हैं ? '
'वह कन्या अनुपम सुन्दरी विशिष्ट मीठी मनमोहक देह गंध वाली निषादराज की कन्या है युवराज '
जिस तरह पतंगा दिए के मोहपाश में खिंचा चला जाता है वैसी ही हालत इस वक्त महाराज की है। वे निषाद-सुंदरी के देहगंध में बंध गये हैं '
यह निषाद कन्या 'मत्स्यगंधा' नाम से विख्यात है युवराज '
'फिर भी आपको यह अटपटा नहीं लग रहा है ?
अमात्य, एक आभिजात्य कुल के सामाजिक ,आर्थिक हर दृष्टिकोण से सुसम्पन्न एक विशाल भूमि के भूपालक का इस तरह से निषाद-कन्या के लिए तड़पना , विह्वल होना गलत नहीं लग रहा है ? '
क्या कामासक्ति इतनी प्रबल होती है।
कि एक पुरुष उसके लिए अपना राज-काज-सम्मान अपने कर्तव्य, उत्तरदायित्व सब भूल जाए ? '
'पिताजी के लिए सामान्य तो क्या जब देवकुल तक की कन्या उपलब्ध है।
अमात्य, तब महज किसी बिशेष कन्या के प्रति काम की प्रबलता से राजकीय गरिमा को दाँव पर लगाना कहाँ तक उचित है ? '
निशब्द अमात्य के प्रस्फुटित शब्द ,
'आप तो स्वयं विद्वान हैं युवराज'
खुद असुर गुरु शुक्राचार्य से आपने 'कला' और 'प्राकृतिक-विज्ञान' की शिक्षा ली है '
'युवराज ! छोटा-बड़ा , ऊंच-नीच, कुल , परिवार , गोत्र यह सब तो महज मानव का मानवों द्वारा बनाए गये कृत्रिम विभेद एवं राज्यों की देन है '
उफ्फ ... अमात्य जी! इन बातों को छोड़िए। ये गंभीर बाते हैं। इनपर फिर कभी विस्तार से चर्चा करेगें।
अभी तो आप मुझको पहले ये बताइए ...
पिताश्री तो आखेट के लिए वन गये थे ना।
इस निषाद-कन्या से उनकी कहाँ और किन परिस्थितियों में भेंट हुई ?
आप जानना चाहते हैं विस्तार से तो सुनिए ...।

आगे ...



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दादी की परी
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