कहानीसामाजिक
#शीर्षक
" महानायक "
अंक ... २ 🌺🌺
देवदत्त ज्यों द्वार के मुख्य द्वार पर पहुँचा संदेशवाहक आ चुके थे ,
- 'युवराज की जय हो '
महाराज का दल अभी हस्तिनापुर से कुछ कोस दूर है थोड़ी देर में ही पहुँचने वाला है'
' यह तो अच्छी खबर है। फिर मेरे मन में अभी भी चिंता के बादल क्यों उमड़ रहे हैं ?
पिताश्री कुशल और स्वस्थ हैं मेरे लिए यह भी अति सुखदायी बात है '
उसके चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गयी।
उत्साह और उल्लास से भरा देवदत्त अनुचरों को आदेश देने लगा है।
' पूरे राज मार्ग को सजाया जाए।
सभी सभासदों और आमजनों को सूचना दे दी जाए '
कुछ देर पश्चात ही हस्तिनापुर में शहनाई बज उठी। पूरा नगर महाराज के स्वागत में जुट गया।
सभी आमजन से लेकर विशिष्ट नागरिक सजे-सजाए एक कतार में खड़े हो गये।
और उन सबके आगे नेतृत्व कर्ता के रूप में खड़ा हुआ अपने व्याकुल चित्त में व्याप्त उद्गिग्न्ता और अशांति को दूर करने के असफल प्रयास में जुटा हुआ मैं
खड़ा हूँ '
स्त्रियां मंगलगीत गा रही हैं।
दूर से महाराज का रथ दिखाई देते ही महाराज को एक नजर भर देख लेने मात्र के लिए लोगों में कोलाहल सा मच रहा है।
नगर के मुख्यद्वार पर रथ आ कर लगा ,
' यह क्या? सारथी ने एक क्षण भी न रुक घोड़े को चाबुक मार कर आगे बढ़ा दिया है।
हर बार की तरह पिताश्री महाराज ने अपनी खिड़की के पर्दे हटा कर अपने प्रफुल्लित श्रीमुख के दर्शन नहीं दिए ना ही किसी का अभिवादन स्वीकार किया '
रथ को बिना रूके, अभिवादन स्वीकार किए बिना राजप्रसाद की ओर चले जाने का आदेश है।
शायद थके हैं उन्हें विश्राम की आवश्यकता है ?
'महाराज शांतनु की जयजयकार से त्रिभुवन गूंज उठा है पर महाराजा के निष्ठुर व्यवहार से विक्षुब्ध हुई जनता वापस निराश भाव से अपने -अपने आवास की ओर वापस लौटने लगे हैं।
आश्चर्य है ,
जब महाराज के स्वागत में स्वयं उनका पुत्र युवराज , समस्त गणमान्य नागरिक , सभासद ,पुरोहित और प्रजाजन खड़े हैं।उसके बावजूद वे सबकी अवहेलना कर अपने कक्ष की ओर बढ़ गये ।
अविश्वसनीय!
ऐसा अशोभन कार्य स्वंय महाराज शांतनु कर गये।
मैं समझ ही नहीं पा रहा हूँ।
मेरे अन्दर थोड़ा डर सा व्याप्त हो रहा है।
आगे ही नहीं बढ़ पा रहा था। क्या अभी जो यहाँ घटा यह सत्य है ?
अपनी ही प्रजा और सभासदों से महाराज का यह विमुख व्यवहार ?
मेरे पाँव धरती पर जम गये हैं।
तो क्या यही अशुभ आशंका मेरे मन में सुबह से व्याप रही है '
फिर भी मन में जमे अविश्वास हटा और विश्वास को जमा कर राजपुरोहित के पास जा पहुँचा।
' यह कैसा व्यवहार महाराज का ?
कुछ समझ में आया आपके ?
'युवराज यह तो उनके समक्ष प्रस्तुत हो कर ही पता चलेगा चलिए उनके भवन की ओर चलते हैं उनकी कुशलता जानने हेतू '
रापुरोहित भी शंकित ... हैं।
आखिर हुआ क्या है ? पिताश्री क्या अचानक अस्वस्थ हो गए, घायल हैं, निराश हैं अथवा ? '
राजपुरोहित के साथ अपने रथ पर सवार हो कर मैं यही सच्चाई जानने के लिए उनके भवन की ओर चल पड़ा हूँ।
जहाँ जा कर देख पा रहा हूँ ,
वहाँ और भी अधिक सन्नाटा व्याप्त है।
महाराज की उपस्थिति के उपलक्ष्य से पैदा हुई कोई गहमागहमी नहीं है।
चारो तरफ सिर्फ़ अंगरक्षकों और द्वार पालों को छोड़ अन्य कोई भी परिजन नजर नहीं आ रहे हैं।
हस्तिनापुर पुर के चक्रवर्ती सम्राट महाराज की सुखदायक उपस्थिति के कोई लक्षण नहीं दिख रहे।
तो क्या महाराज को कोई मानसिक चिन्ता सता रही है ?
वह भी हमारे रहते हुए।
किसमें इतना साहस कि उन्हें मानसिक कष्ट पहुँचाए।
मैं फिर एक बार किसी अनहोनी की आशंका से काँप गया।
सामने पिता का भवन और मैं बिना उनकी आज्ञा के उनसे मिल भी नहीं सकता मन व्यथित हो गया।
इन राजघरानों के विचित्र ही राजकीय चलन होते हैं।
पिता-पुत्र भी संस्कारों में बंधे हुए एक दूसरे से खुल कर गले नहीं मिल सकते।
सामने खड़े द्वारपाल से कहना कितना कृत्रिम लग रहा है ,
'पिताश्री के चरणों में मेरा प्रणाम निवेदित करो '
' युवराज ,
आत्मीय शब्दों में द्वारपाल बोल उठा ,
'महाराज ने इस वक्त अपनी शांति कदापि भंग नहीं करने को कही है ,
कहा है उन्हें अकेला छोड़ दिया जाए '
ओ... तो मेरा अनुमान सही है। पिताजी वास्तव में स्वस्थ नहीं हैं।
एक पुत्र होने के नाते मेरा मन पिताजी के हाल जानने को बेचैन हो उठा इसलिए मैंने उनके आदेश की परवाह न करते हुए सीधा भवन में प्रवेश कर गया।
द्वारपाल ने भी मुझे रोकने की कोई चेष्टा नहीं की।
इस परिस्थिति का ज्ञान शायद मुझसे अधिक उसको था।
वहाँ पिताजी को दूर से ही देख कर उन्हें मौन प्रणाम किया तब स्पष्ट देखा कि वे हताहत् नहीं हैं सिर्फ एक छटपटाहट से घिरे हुए हैं ।
और उनकी यह छटपटाहट किसी मानसिक व्याधि से पीड़ित व्यक्ति की लग रही थी।
अब ऐसी कौन सी पीड़ा उन्हें है। जो वह मुझ तक से नहीं कह पा रहे हैं।
माँ तो हैं नहीं। वे अपनी शर्तों के मुताबिक ही मुझे पिता शांतनु के हांथों सौंप कर गायब हो गई थीं।
मैं बचपन से ही बहुत अभागा रहा हूँ।
माँ-बाप के प्यार-दुलार से वंचित सूखे उपवन की तरह।
मेरी माँ 'गंगा' देवकन्या थीं। इस सब से अलग।
वे नहीं चाहती थीं कि मेरा बचपन हस्तिनापुर के कृत्रिम और क्रूर वातावरण में बीते।
इसलिए उन्होंने बाल्यकाल से ही मुझे उस द्वेष, इर्ष्या और भोग-विलास के साधनों से दूर रखते हुए पिता के साये से भी दूर कर दिया।
मेरा बचपन दूर वन-प्रान्त में ऋषियों के साथ आश्रम में बीता।
उस लम्बे वन प्रवास में पिताजी को भी मेरी याद नहीं आती थी।
बहरहाल...
इस समय पिताजी ने किसी से मिलने तक से मना कर दिया है। चलता हूँ। अमात्य के पास वे ही इस समस्या का समाधान निकालेगें।
आगे ...