कहानीसामाजिक
नमस्कार साथियों 🙏
मैं एक बार फिर से आप सब के समक्ष प्रस्तुत हूँ। चिरपरिचित महानायक के चरित्र के कुछ अनछुए पहलू को छूने की कोशिश मात्र करती हुई ।
आप सबों ने 'महाभारत' ग्रन्थ को पढ़ा , सुना अथवा कम से कम टी वी सीरियल में अवश्य देखा होगा।
मेरी कहानी महानायक 'गंगा-पुत्र-देवव्रत' पर आधारित है। एक कमवय युवक के मन में चल रहे तरह-तरह के मनोभाव एवं उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप उठाए गये भीष्ण व्रत प्रतिज्ञा।
मुझे आरंभ से ही भीष्म का चरित्र बेहद जटिल और उलझा सा लगा है।
मैं टी वी सीरियल में नायक 'मुकेश खन्ना ' जी के द्वारा अभिनीत भीष्म के सशक्त किरदार को निभा कर ले जाने की उनकी योग्यता से बेहद प्रभावित हूँ।
भीष्म के जन्म से लेकर मृत्यु तक की जीवन-यात्रा बेहद जटिल रही है।
यों महाभारत की कहानियों में, गंगा-पुत्र-भीष्म का पदार्पण एकाएक गंगातट पर २५ वर्ष की आयु में होता है।
लेकिन मैंने यहाँ थोड़ा फेरबदल किया है। कथानक को देवव्रत के स्वगत कथन से प्रारंभ कर कहानी लिखने के अपने इस लघुतम् प्रयास को आगे कहाँ ले जा पाने में सक्षम हो पाती हूँ ?
यह नहीं जानती।
अतः आप सबों से करबद्ध प्रार्थना है 🙏 प्लीज जगह-जगह मेरी कमियों को इंगित करते रहेगें ताकि आगे सुधार कर पाऊँ।
इस कहानी को लिखने के पहले मैंने इस विषय पर थोड़ी विस्तृत जानकारी लेनी चाही थी जो गुरुजनों के सहयोग से प्राप्त हो पाई।
अतः उन सबों की प्रेरणा एवं आशीर्वाद से अब आपका अधिक वक्त ना ले कर सीधे कथा रूपी रणक्षेत्र में उतरने की हिम्मत कर रही हूँ।
साथियों साथ देना 😊 🙏
अंक ... १ 🌺🌺
स्थान-- राजप्रसाद का विशाल कक्ष।
समय -- ब्रह्म मुहूर्त।
पात्र -- चिंतित मुद्रा में 'देवव्रत'।
आम दिनों की तरह आज मुझे अच्छी नींद नहीं आई थी।
सुबह ही करवटें बदलते हुए पलंग पर उठ बैठा। न जाने क्यों रोज की तरह मेरा चित्त उतना प्रफुल्लित नहीं है।
खुशी की जगह मन में अशांति, व्याकुलता और उद्गिग्न्ता महसूस हो रही है। जी घबरा रहा है ऐसी व्यग्रता तो प्रायः किसी अनहोनी के सूचक माने जाते है।
देवव्रत वस्त्र संभालते हुए पलंग से नीचे उतरा और योंही कक्ष में टहलने लगा।
फिर यह सोच कर कि शायद शीतल जल मेरी व्यग्रता दूर करने में सहायक हो नित्य क्रिया से निवृत हो अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक देर तक तक स्नान करता रहा।
लेकिन तनिक भी शांती नहीं मिल रही उलट बढ़ती ही जा रही है।
किससे पूछूँ ?
कहाँ जाऊँ ?
काश कि इस समय राजधानी में पिताजी होते तो। वे भी तो नहीं हैं।
राजकाज सम्बंधित सारी जिम्मेदारी मेरे कंधे पर डाल शिकार खेलने चले गये हैं। मुझपर खुद से ज्यादा विश्वास करते हैं।
उन्हें गये हुए एक महीने के लगभग हो गए हैं। लेकिन उनके स्वास्थ्य और सकुशल होने की कोई सूचना मुझे अब तक नहीं मिली है।
शायद इसलिए मेरा मन किसी भी प्रकार की शांत नहीं हो पा रहा है।
तभी घोड़ों के तीव्र गति से चल कर आने की पदचाप सुनाई दे रही है।
क्या बात ?
देवव्रत ने उठ कर कक्ष की खिड़की खोल दी ,
' सूर्योदय होने को है। यह एक साथ इतनी धूल उठ रही है।
क्या किसी पड़ोसी राजा ने आक्रमण कर दिया है।
'बेवकूफ कहीं के वह मेरे पराक्रम को नहीं जानते ? '
या पिताश्री ने इन संदेशवाहकों के हांथों कोई आवश्यक संदेश भेजा है ?
'लेकिन ये इतनी तेजी से भागते हुए क्यों आ रहे हैं ? '
इन नाना प्रकार की आशंकाओं से घिरा मन ले कर देवव्रत राजप्रसाद के मुख्य द्वार की तरफ दौड़ पड़ा ।
आगे ...