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"वह मुझको छोड़ गया मां" 🌺🌺 - सीमा वर्मा (Sahitya Arpan)

कहानीसामाजिक

"वह मुझको छोड़ गया मां" 🌺🌺

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  • 47 Min Read

#शीर्षक
" वो छोड़ गया मुझको"

' सुधाकर नहीं दिख रहे हैं तेरे प्रमोशन का इतना बड़ा फंक्शन और वही गायब है '
जब दरवाजे पर सुधाकर की राह तकती उनकी नजर थक चुकी तब यह दुखदाई सवाल दाग दिया था ।
'मेहुल' कट कर रह गई
माँ और बाबा शुरु से ही उसके इस तरह लिविंग में रहने के सख्त खिलाफ थे तभी तो मेहुल से सब नाता तोड़ बैठे हैं।
'हम अब साथ नहीं रहते माँ ... '
मेहुल की आवाज बहुत सम्भालने पर भी आवेग से लरज गयी थी।
जिसे सुन माँ की सवालिया नजर उसके चेहरे से होती हुई बाबा के असमय ही झुर्रियों से भरे निरीह चेहरे पर जा टिकी ... ,
'ओहृ... ऐसा कैसे हो सकता है ?
सुना है वह इसी शहर के दूसरे किनारे बसे बड़े से फार्म हाउस ... में रहता है... '
-- मेहुल सुन्न हो गई थी ,
' उफ्फ जो घट चुका है बाबा उसे बोलने में भी कतरा रहे हैं '
इधर प्रमोशन पार्टी अपने पूरे उठान पर है।
सिवाय सुधाकर के ... ,
डीजे, लाइट्स, खाना-पीना खुल कर डांस-गाना, हो-हल्ला , शोर-शराबा सभी कुछ तो है
हाथ में शैम्पेन के ग्लास ले कर मेहुल एक कोने में रखी कुर्सी पर बैठी अतीत... में जा पहुँची है।
तब तीन बहनों के बीच की मेहुल अपनी प्रतिभा के बल पर विदेश में जॉव ले कर कितनी खुश थी।
माँ बाबा के लाख मना करने के बाद भी ,
'कि अकेली उतनी दूर कैसे जाने दूँ ?'
पर मेहुल ने कब किसी की मानी थी।उसकी जिद के आगे वे भी थक कर चुप हो गये थे ,
'अकेली कहाँ जा रही हूँ माँ सुधाकर है ना मेरे साथ '
आत्मविश्वास से लबरेज़ थी मेहुल।
फिर बोर्डिंग पास, चेक इन, सिक्युरिटी चेक आदि से गुजरती हुई छोड़ने आए माँ-बाबा के पैर छूने को झुकी मेहुल से माँ ने कहा था,
'कितनी प्यारी लग रही है तू '
नजर उतार कर कान के पीछे काजल का टीका लगाती हुई दबी लेकिन कड़ी आवाज में फुसफुसा कर हिदायत दे दी थी,
' जैसी कोरी जा रही वैसी ही कोरी लौट कर आना मुझे कोई फिरंगी अपने घर के लिए नहीं पसंद है ,
' सुना है वहाँ की हवा में ... ओपेन सेक्स की बयार बहती है '
एक पल को मेहुल सहम कर चुप हो गयी थी लेकिन फिर अगले ही पल चहकती हुई ,
' देख लेना माँ, जैसी वन पीस जा रही हूँ वैसी ही वन पीस लौट कर आउंगी '
लंबी उसांस भरी मेहुल ने... फिर यह दो साल उसने किस तरह घुट-घुट कर गुजारे हैं ?
यह सब याद आते ही सिहर गयी...
यहाँ की खुली संस्कृति में ढ़लने के प्रयास में सुधाकर के साथ स्वीमिंग पूल में उतरी मेहुल उसकी ही सिगरेट से उन्मुक्त कश लगाती उस दिन सुधाकर की आंख में अपने लिए प्रशंसा देख कर उसे गर्वित हो उठी थी।
फिर बाद में बेतकल्लूफ हो कर जब सुधाकर ने वाईन की दो बोतलें निकाल नुमाइशी अंदाज से टेबल पर रखा
तब अभ्यासहीन सी !
झंझा की उस रात में जाम पर जाम चढ़ाती नदी के दुर्बल तटबंध सी टूटी मेहुल के पास कोई विकल्प बचा ही कहाँ था ?
कुछ चीजें एक बार बिगड़ जाने के बाद कभी नहीं सुधरती ,
'बिल्कुल फटे हुए दूध की तरह '
माँ बाबा के बार-बार उसके विवाह की रजामंदी के लिए फोन पर पूछे जाने से परेशान मेहुल एक दिन बिन बादल के बरसात जैसी माँ पर बरस उठी थी ...
' माँ आखिर आप चाहती क्या हैं ?
मैं आपके बताए हुए अनजान रिश्ते के लिए हाँ कर दूँ ?'
' क्या कह रही है मेहुल ? फोटो भेज तो दिया है ?
'हद करती हैं माँ बिना मिले और जाने इस तरह आपने उन्हें हाँ कर दी ?
' यह तो हद है अगर इतनी ही जल्दी है तो मेरी जगह छोटी को मंडप में बैठा दें ' कहती हुई फोन काट दिया था।
वह फोन पर अपनी ही रौ में बोली जा रही थी ... बिना यह जाने हुए कि उधर रिसीवर माँ की जगह बाबा ने ले लिया था।
इधर मेहुल ने फोन काटा और उधर बाबा को पक्षाघात लगा लेकिन यह जानने की मेहुल को फुर्सत कहाँ है ?
वह त़ो सुधाकर के साथ ' लिविंग रिलेशन' में रहती हुई प्रमोशन दर प्रमोशन पा कर खुश है।
शादी के नाम पर सुधाकर अक्सर टाल जाते हैं।
वैसे जल्दी मेहुल को भी कहाँ थी ?
वह हाई एक्सक्यूटिव की पोस्ट पर पहुँच कर सुधाकर के साथ माँ -बाबा के आशीर्वाद लेना चाहती थी।
पर क्या सच हो पाना संभव हो पाया ?
एक आम मर्द की तरह सुधाकर का मन उससे अघा चला था।
वह अक्सर उसे फ्लैट में अकेला छोड़ कर दो तीन दिनों तक गायब हो जाता पूछने पर उसे चुंबनों से भर देता।
पहले तो कभी उसे ऐसा महसूस नहीं हुआ है,
' कि अब कभी कुछ ठीक नहीं हो पाएगा एक बेनाम डर उसके भीतर घर करने लगा है '
उसने रेत पर घरौंदा बनाने की कोशिश की थी जब रिश्ते का आधार ही कमजोर है तब घर कैसे मजबूत होगा ?
अब उसे सुधाकर के साथ बिस्तर पर किसी और के साथ होने जैसा महसूस होने लगा है।
सुधाकर की कलीग मोना का बार-बार फोन एवं मेसेज आते रहना उसे उलझनों में बाँधने लगा है।
अकेले रात-रात भर नींद नहीं आती है उसे वह सोचने लगी है ,
' यह कैसे भूल गयी थी कि बंधनहीन प्रेम को मैं मर्यादा में बाँध कर नहीं रख सकती ? '
अब कम से कम मेरी वापसी का तो रास्ता नजर नहीं आ रहा है।
माँ-बाबा ने समाज के डर से पहले ही महज औपचारिक रिश्ता रखा है।
जिन्दगी से थकी हारी मेहुल के कान में उस रात सुधाकर के शब्द रात भर गूंजते रहे ,
' तुम किसी चीज को पकड़ कर क्यों बैठ जाती हो मेहुल हर रिश्ते में चेंज होते रहना चाहिए ,
' यू नो वेल!
आई लव चेजेंज इन माई लाइफ ऐन्ड दिस इज माई मोटो यार '
कहता हुआ सुधाकर निकल गया था।
रात भर की बेचैनी के बाद अलसुबह ही उस विशाल फार्म हाउस के गेट को खोलने के लिए आगे बढ़े मेहुल के हाथ ठिठक कर रह गये थे ...
अन्दर से सुधाकर और ऐन्जलीना की मिलीजुली खिलखिलाकर हँसने की आवाज से उसके उठे कदम वापसी ... के लिए मुड़ चुके थे।
तभी कंधे पर माँ के कमजोर हांथों की थपथपाहट से चौंक गई है मेहुल।
डीजे की गर्जना कर रही म्यूजिक के भयंकर शोर कब के बन्द हो चुके हैं।
यह अपने में खोई मेहुल को पता ही नहीं चल पाया है।
सारे मेहमान एक-एक कर विदा ले चुके हैं।
शायद माँ-बाबा ने ही उनको समझा-बुझा कर वापस विदा कर दिया था,
' चलो मेहुल अन्दर सोने चलो ठंड बढ़ती जा रही है कल सुबह जल्दी उठना भी तो है हमें '
कहती हुई माँ ने टेबल पर रखे शैम्पन के ग्लास को दूर फेंक दिया है।
जैसे अपनी बेटी की जिन्दगी को हर बुरी बला से बचाना चाह रही हैं।
कल सुबह नौ बजे माँ -बाबा की रिटर्निंग फ्लाइट है।
फिर वही पहले वाली रूटीन शुरु हो जाएगी
' मेरा आँचल अब तक रिक्त ही है कुछ भी कहाँ बचा है ? '
सिर्फ़ सूनी रातें, उचाट दिन।
जिस बंधनहीन प्रेम को मैंने सहजता से स्वीकार कर लिया था। उसका यह हश्र होना स्वाभाविक ही है '

फिर उस रात नींद आती भी तो क्या ?
टूट कर बिखरी-बिखरी सी मेहुल की सारी रात आँखों में कटी।
किसी तरह सुबह सात बजे गाड़ी निकाल कर माँ-बाबा को हवाई अड्डा तक छोड़ कर बाहर निकली मेहुल की टाँगें काप रही हैं।
पूरा शरीर भीगीं हुई रूई के समान हो रहा है। थोड़ी देर रुक कर वहीं कॉफी पीती मेहुल की इच्छा घर लौटने की नहीं हो रही है।
लेकिन जाना तो होगा !
करीब दो से पौने तीन घंटे बाद वापस लौट कर अपने अपार्टमेंट के पास लगी ब्राउन रंग की गाड़ी देख हड़बड़ा गयी।
किसी तरह कांपते पैर से घर में प्रवेश करने पर हाउसकीपर मैगनोलिया से जो सुना तो वो सच नहीँ लगा।
-- सुधाकर आए हैंं
बर्फ की सिल्ली सी जम गयी है मेहुल।
' अभी कहाँ है ? '
'वाशरूम में '
तभी खट से दरवाजा खुलने की आवाज आई,
' तुम! तुम कब आए ? '
'बस चला ही आ रहा हूँ तुम्हें फोन किया था पर स्विच ऑफ आ रहा था '
याद आया मेहुल को कल रात पार्टी के पहले ही उसने फोन बंद कर दिया था।
' कुछ काम है सुधाकर ? '
खाली नजरों से उसे देख कर मेहुल ,
' क्या लोगे गर्म या ठंडा ? '
'अभी तो आ ही रहा हूँ मेहुल जरा साँस तो लेने दो फिर मिल कर ठंडा और गर्म दोनों ले लेगें '
सुधाकर पास रखी कुर्सी को खींच कर बैठते हुए शरारत से बोला।
ठंडी पड़ी मेहुल पूछना चाहती है ,
' तुमने मेरे साथ ऐसा क्यों किया सुधाकर ' पर पूछ नहीं पाई आखिर इस रिश्ते में रजा़मंदी तो उसकी भी थी।
माँ-बाबा द्वारा तय किए विवाह से आपत्ति तो उसे ही थी।
'सुधाकर, मैं अगले महीने वापस जा रही हूँ '
लगा जैसे सुधाकर इसी उत्तर की प्रतीक्षा में हो,
'हूँ... अगले महीने ? '
चैन की साँस ले हैंगर में टँगे कोट को उतार मेहुल की ओर हल्की नजर डालता हुआ वह दरवाजे से बाहर निकल गया है।
इसके अगले महीने ही इस समय .. .
मेहुल माँ के सामने बैठी सोच रही है,
' अपना ध्यान कहाँ लगाए ?
उसे बैंगलोर की एक मल्टीनेशनल कम्पनी में सीनियर कंन्सल्टेंट की नौकरी मिल गयी है।
वह बैंगलुरू चली जाएगी।
इस वक्त उसके अन्दर ख्यालों की लंबी जद्दोजहद चल रही है। पिछला बीता हुआ सब आँखों के सामने एक-एक कर चित्रपट की तरह निकल कर सामने नजर आ रहा है।
उसे अच्छा लगता है वह बचना नहीं चाह रही है।
यों कहें वह उस सब को फिर से याद करना चाहती है।
सामने खुली खिड़की से वो दो मंजिल मकान जिसमें 'मिश्रा अंकल ' की पूरी फैमिली ,
आंटी और उनके दो बेटे ' पारितोष' 'आशुतोष' के साथ रहती थी।

' पारितोष मिश्रा' उस घर के बड़े बेटे का नाम था।
उसकी आँखें इतनी बड़ी और भाव भरी थीं कि शब्दों की जरुरत ही नहीं पड़ती।
वो मेहुल से सात साल बड़ा और छोटा भाई आशुतोष उससे तीन साल छोटा बेहद बातूनी और वाचाल था।

ये वो वक्त था जब मेहुल फोर्थ इयर कम्प्लीट कर सुधाकर की छत्रछाया में ऐब्रोड जाने के मंसूबे पाल रही थी।

पारितोष की बैंगलुरू की किसी कंपनी में नयी-नयी जॉव में लगी थी।
वह यदा-कदा ही छुट्टियों में आया करता।

एक शाम जब पारितोष उसके इंतज़ार में पार्क में पहले से खड़ा हुआ उसकी राह रोक कर पूछ बैठा था ,
' आगे की क्या प्लैनिंग है ? '
मेहुल यह सवाल सुन आहृलादित तो
हुई थी पर जबाव देने में उसने जल्दी नहीं दिखाई थी।
उसकी आँखों के सामने ऐब्रौड की चकाचौंध जो कौंध रही थी।
उसने अपनी लंबी चोटी को झटके से पीछे कर ,
' अभी सोचा नहीं है। समय आने पर सोचूंगी '
कह कर वहाँ से कट ली थी।

तभी सामने बैठी माँ अचानक पूछ बैठी है।
'तुझे पारितोष पसन्द था ? '
' उफ्फ ... क्या माँ की आँखों में स्कैनर लगा है '
'उसकी पोस्टिंग आजकल कहाँ है माँ ? आपने फोन पर बताया था उसकी शादी किसी दीपाली नाम की लड़की से तय से हुई थी '
' हाँ मेहुल, पर कहाँ हो पाई थी ?
दीपाली ने पैसों की खातिर उसकी जगह उसके बॉस के साथ शादी कर ली
पारितोष ने फिर शादी करने की सोची ही नहीं '
फिर अंकल-आंटी पारितोष के साथ बैंगलुरु ही रहने लगे हैं।
यह सब बताने के पीछे माँ की क्या मंशा है यह मेहुल से छिपी हुई नहीं है।
' -- शायद वो मुझे और पारितोष को एक फ्रेम में देखना चाह रही हैं '
क्या यह संभव है ?
'शायद हाँ ?'
शायद नहीं ?'
मेहुल खुद को दो अलग-अलग खांचे में रख कर देख पा रही है।
एक में,
' क्या पारितोष के साथ उसके माँ-बाबा मेरे विगत जीवन के टूटे-फूटे उतार-चढाव को झेल पाएंगे ? '
दूसरे खांचे में ... ,
' स्वयं माँ-बाबा के साथ संतुष्टि के साथ एक-दूसरे के सशक्त सहारे के रूप ... में'
दोनों कहीं से भी मेल नहीं खा रहे हैं।
अगले दिन ही मेहुल ने माँ को निर्णय सुना दिया है,
' माँ , मुझे किसी ऐसे बंधन में नहीं बंधना है। जहाँ मेरा आस्तित्व ही बिखर जाए '
'मैं जैसी हूँ वैसी ही भली '
आप चाहें तो मेरे साथ बैंगलुरु चल कर रह सकती हैं ?
कहते वक्त उसके चेहरे पर परम संतोष की आभा छिटक रही है।

सीमा वर्मा / नोएडा

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दादी की परी
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