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" बेबी - चांदनी " 🍁🍁 - सीमा वर्मा (Sahitya Arpan)

कहानीसामाजिक

" बेबी - चांदनी " 🍁🍁

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नमस्कार साथियों 🙏 🍁🍁
अगर सच्चे हृदय से कहूं तो पुरानी फिल्में देख कर यह धारावाहिक लिखने को प्रेरित हुई हूँ।
बहुत दिन नहीं हुए जब मुजरा-गोष्ठी, नृत्यांगना,हवेली-जमींदार तथा इनसे जुड़ी तमाम किवदंतियां हमारे दिल को लुभाती थी।
भले ही आज युग बदल गया हो पर क्या हम बदल पाए हैं?
कदाचित इन मामलों में हमारी सोच आज भी वही है।
अब आपका ज्यादा समय न ले कर उन कहानियों में से किसी एक की परतों को खोलने का तुच्छ प्रयास कर रही हूं।
अतएव सहयोग अपेक्षित है।

#शीर्षक
" बेबी चांदनी " 🍁🍁

सांवली-सलोनी और घनेरी जुल्फों वाली चांदनी ने जब से देखना शुरू किया है तभी से कदाचित सोचना भी प्रारंभ किया है।
इस वक्त वह हॉस्टल की सीढि़यों पर बैठी अपनी दोनों हथेलियों में चेहरे को छुपाये अन्तर्द्वन्द से उबरने की पुरजोर कोशिश कर रही है।
उसे घर और मम्मी की बहुत याद आ रही है। गहरी काली आंखों में मोटे आंसू निकलने को तैयार हैं।
बचपन से ही उसने किसी पुरुष को अपने घर में स्थाई रूप से नहीं देखा है।

जब वह बहुत छोटी थी।
पुरूष के नाम पर बस एक गुरु जी की धुंधली तस्वीर जिनकी पीठ पर वो सवारी किया करती थी। वह भी अब वक्त के साथ धूमिल हो कर मिट गई है।
शहर के ठीक बीच में अवस्थित उस शानदार लग्जरी अपार्टमेंट की नवीं मंजिल पर चार कमरे वाले उस फ्लैट में कभी कोई आता-जाता नहीं सिवाय घर के नौकरों के और ना ही वे लोग कहीं बाहर जाते।
नाते-रिश्तेदार के नाम पर भी कोई नहीं... लेकिन तभी उसे याद आया एक भारी-भरकम गहने, कपड़ो से लदी जिन्हें देख कर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता था कि ,
" इमारत कभी बुलंद थी आज भले ही ढ़ह गयी है "
जिन्हें देखते ही मम्मी असहज हो उठती थीं।
उनके मुंह सदा पान से भरे हुए और साथ में पीकदान लिए हुई महरी रहती।
उनके आते ही मम्मी उसे खाना बनाने वाली दीदी के साथ बाहर भेज देतीं और वे मोहतरमा मचलती हुई कहतीं ,
" अए-हैए कहाँ चल दी ?
बिन्नो रानी आखिर आओगी तो मेरी गली ही "
नन्हीं चांदनी अपनी गोल-गोल आंखों से मिटमिटाती हुई उन्हें देख कर ही डर जाती और झट से मम्मी को टाटा बाई-बाई करती निकल जाती।
मम्मी उन्हें झिड़कती हुई कहतीं ,
" क्या करती हैं आप ? "
अम्मी कुछ तो लिहाज करें वो क्यों जाएगी आपकी गली , आपकी गलियां आपको ही मुबारक "
फिर जब दिन गये वापस लौटती तो तब घर का वातावरण उसे ठहरा हुआ सा बोझिल लगता और मम्मी ...
... रंग - रेशम -ज़री वाली भारी बनारसी सा साड़ियों , एवं हल्के सजी काली मोटी वेणी मेंताजे बेले की फूलों के गजरे लगाई हुई शाम को पार्टियों में जाने को तैयार मिलतीं।
उसका मन करता , पीछे से जा कर मम्मी को पकड़ ले पर नन्हीं चांदनी उन्हें पर्दे के पीछे से छिपछिपा कर देखती रहती।
क्योंकि शाम के वक्त उसे कमरे से निकलने की सख्त मनाही थी।

वह रौशन के साथ अपने कमरे में ही खेलती- कूदती रहती।
देर रात दबे पांव मम्मी कब आती और उसके लिहाफ में घुस जातीं।
सुबह नींद खुलने पर मम्मी उसे फिर से छाती में चिपका लेतीं और चांदनी इत्मीनान से उनके गले को अपनी बांहों में बांध कर फिर से सो जाती ।
क्रमशः
सीमा वर्मा

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