कहानीसंस्मरण
पितृ दिवस आधारित रचना । हर बार जिंदगी कुछ खूबसूरती ही बिखेरे यह आवश्यक नहीं है साथियों कुछ बदनुमा दाग -धब्बे भी रहते हैं उसके दामन में... इसी पर आधारित है यह रचना
#शीर्षक
"एक पिता ऐसा भी "
साथियों जैसा कि मैंने देखा... ,
यह कहानी मेरे होमटाउन की है।
बिल्कुल सजीव, सत्य और लोमहर्षक।
हमारे पड़ोस में एक बहुत प्रसिद्ध नामी-गिरामी डाक्टर साहब (सर्जन) रहते हैं।
अच्छा खासा हँसता-खेलता परिवार था उनका।
वे दो प्यारी सी बच्चियों के पिता।
बड़ी लड़की ' जया ' पूर्ण स्वस्थ, पढ़ने में खूब होशियार तथा हर प्रकार से सामान्य।
बारहंवी क्लास पूरी कर पिता की राह पर चलने की ठान विभिन्न मेडिकल प्रतियोगिताओं में शामिल हुई।
जिसमें सफल हो कर मेडिकल कॉलेज में दाखिला ले लिया था।
फिलहाल शिक्षा प्राप्त कर सरकारी सेवा में लग चुकी है।
इसके ठीक विपरीत बचपन से ही गोल-मटोल प्यारी गुड़िया सी दिखने वाली छोटी सुपुत्री 'विजया' प्रारंभ में अपनी तोतली आवाज से सबका मन मोह लेती थी।
कालांतर में थोड़ी बड़ी होने पर वह असामान्य रूप से चिल्लाने, गाने लगी थी।
उसका शारीरिक विकास भी असामान्य रूप से होता चला जा रहा था।
महज सात बर्ष की उम्र में ही पूर्ण स्त्रीत्व को प्राप्त कर चुकी विजया अपने शारीरिक विकास के प्रति पूरी तरह से लापरवाह रहती है।
वह बड़ों की तरह खाना खाती और बाथरुम जाने जैसी सामान्य प्रक्रिया से पूर्णतया अनभिज्ञ होती जा रही थी।
संक्षेप में कहूँ तो उसका मानसिक विकास पूरी तरह से ठप्प हो विकलाँगता की सीमा को पार कर गया था।
डॉक्टर साहब तो खुद ही डॉक्टर हैं।
उन्हें किसी को भी कुछ बताने की जरुरत नहीं थी।
उसे लेकर इलाज कराने हेतू कहाँ -कहाँ नहीं घूम आए थे।
अमेरिका -इंगलैंड तक के चक्कर लगा कर थक चुके।
अब हताश हो कर डॉक्टर दम्पत्ति ने उसे भाग्य के भरोसे छोड़ दिया है।
वह बदनसीब लड़की अमरवेल की तरह बढ़ती हुई अपने माता-पिता की जिंदगी को ग्रहण की भाँति लग गई है।
मेरे खुद के अनुभव से आप सब को अवगत कराना चाहूंगी।
एक ऐक्सिडेंट में पाँव टूटने की वजह से मैं उनके ऑपरेशन थिएटर में टेबल पर पड़ी हुई असहृय दर्द का सामना कर रही थी।
उस वक्त भी वे भलेमानुष अपनी बेटी को समझा रहे थे,
" खाना खा लो विजया मैं अभी नहीं आ पाउंगा काम कर रहा हूँ "
दरअसल माजरा यह था कि कि वह सिवाय अपने पिता को छोड़ कर किसी की भी नहीं सुनती है।
अब आप सब स्वयं तय करें उन निरीह पिता की विवशता जिसकी जवान बेटी शारीरिक रूप से तो पूर्ण स्वस्थ है।
लेकिन जिसे अपने बढ़ते हुए शरीर का खयाल है।
और ना परिस्थिती जनित अन्य घटने वाली दुर्घटनाओं की चिंता है। बाद के दिनों में उसे घर में बाँध कर रखा जाने लगा है।
जिस पर वह और भी उद्दीग्न हो कर चिल्लाती-गड़गड़ाती रहती है।
गुस्से में सिर को दीवार से पटक कर लहुलुहान होना यह उसके रोज की दिनचर्या में शामिल है।
अब भगवान जानें उस क्लेश से अथवा किसी अन्य कारण से पिछले बर्ष इन डॉक्टर साहब को भी हृदयाघात का सामना करना पड़ा है।
हम सब मुहल्ले वासियों ने कितनी ही बार परमपिता परमेश्वर के आगे जाने-अनजाने में अपने पूर्व-जन्म के किए हुए पाप के लिए क्षमा मांगते हुए देखा है।
डॉक्टर दम्पत्ति ईश्वर से विजया को इस जगत से मुक्ति प्रदान करने की प्रार्थना करते रहते हैं।
क्या आपको नहीं लगता ?
इस संसार में कदाचित सबसे दुर्भाग्य शाली है यह पिता जो हर प्रकार से सामर्थ्यवान होते हुए खुद अपनी ही संतान का इलाज नहीं कर पा रहा है।
क्या यही है उपर वाले का न्याय ?
बहरहाल... जो भी हो मुझे लगता है। कैसी भीषण विवशता रहती होगी ?
' जब जन्मदाता खुद ही बच्चे की मृत्यु की कामना करता होगा '
भविष्य में निःसन्देह वे डॉक्टर साहब निरुपाए , निःसहाय एवं अभागे पिता के रूप में जाने जाएंगे।
इति श्री।।
सीमा वर्मा /नोएडा
सुविधा के लिए लड़कियों के नाम परिवर्तित कर दिए गये हैं।