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शिवतत्व - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

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शिवतत्व

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शिव साक्षात् परब्रह्म हैं,. वही ब्रह्म जिसे वेद समझते-समझते थककर स्वयं ही समर्पण की मुद्रा में आकर " नेति-नेति " कहकर स्वयं के ज्ञान की इतिश्री कर लेते हैं, अर्थात्, यह इति नहीं है, इसमें बहुत कुछ समझना शेष है. कितना भी वर्णित होने पर भी जो बुद्धि और तर्क को ठेंगा सा दिखाता हुआ, उनके समझने के लिए कुछ न  कुछ शेष  ही रह जाता है वह ब्रह्म स्वयं अनादि, अनंत और अशेष है. इसे अपनी बुद्धि और आस्था के अनुसार हम सब भिन्न-भिन्न रूप में देखते हैं. आइये, हम भी एक झलक देखते हैं.

 "  यं शैवाः समुपासते शिव इति, ब्रह्मेति वेदांतिनः
    बौद्धाः बुद्ध इति, प्रमाणपटवः, कर्त्तेति नैयायिकाः
    अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः, कर्मेति मीमांसकाः
    सोsयं तो विदधातु वांछितफलं, त्रैलोक्यनाथो हरि:

       एक छोटे से उदाहरण से इसे समझते हैं. कुछ अंधे व्यक्ति हाथी को स्पर्श करते हूए अपने-अपने अनुभव से उसे समझते हैं. सूँड छूने वाला उसे एक होज पाइप समझता है. पूँछ छूने वाला रस्सी, कान छूने वाला पंखा और पेट छूने वाला दीवार. हम सबकी बुद्धि भी ब्रह्म की विराटता और उस अनुभूति की सूक्ष्मता को समझने में इसी तरह सीमित है. फिर भी हर एक आस्थापूर्ण प्रयास प्रणम्य है. यह उन नकारात्मक विचारों से तो अच्छा है जो इसके अस्तित्व से ही कन्नी काटकर पलायन कर लेते हैं. मैं भी आप सबके सुझावों का नतमस्तक होकर स्वागत करके एक लघु प्रयास करके इस लघु में छिपे प्रभु को ढूँढता हूँ.

       शिव सच्चिदानंद हैं. अर्थात्, सत्, चित्, आनंद की त्रिवेणी हैं. सत् अर्थात् शाश्वत या परम स्थाई रूप है जो निराकार है यही प्रणवाक्षर ॐ है. 
यही ॐ ओंकार बनता है. अर्थात् निराकार से साकार बनता है. एक से अनेक बनने का " अहं बहुष्यामि " संकल्प. यही संकल्प उसे चित् और आनंद बनाता है. अर्थात् प्रलयकाल की चिरनिद्रा से जागकर चिन्मयानंद रूप या चैतन्य रूप में ढल जाता है. यही सदाशिव है. शिव का अर्थ है कल्याण या मंगल और इस मंगल को स्थापित करने और नित-नूतन बनाने के लिए यह पहले  स्वयं के एक में से ही द्वितीय को प्रकट करता है. यही आदिशक्ति, आद्या, परांबा या आदिमाता है. यह अष्टभुजा है. इसकी आठ भुजायें अष्टधा प्रकृति की प्रतीक हैं. ये हैं पंचभूत आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी जिनसे हमारा स्थूल शरीर बना है. ये जड़ अहं का ही एक प्रतिबिंब है. इन पाँच तत्वों से जुडी़ पाँच कर्मेंद्रियाँ और पाँच ज्ञानेंद्रियाँ और पाँच विकार काम, क्रोध, मद, लोभ और मोह, ये रजोगुणी प्रकृति राजसी अहं से प्रेरित हैं. मन, बुद्धि और चित् यह सतोगुणी अहं का अंग हैं. और अहं से परे ही है आत्मा जिसे हम कहते हैं कुछ इस प्रकार " चिदानंद रूपं शिवोsहं, शिवोsहम्  ". यही है "अहं ब्रह्मास्मि " की परम अनुभूति . मन का स्वामी चंद्रमा, बुद्धि के सूर्य और ब्रह्मा हैं. चित् के स्वामी चितचोर हरि हैं और अहं से परे ले जाकर स्वयं की अनुभुति करवाने में सक्षम शिव हैं. 

      हाँ, तो अष्टधा प्रकृति ही जगदंबा हैं और परमपुरुष है ब्रह्म का साकार सदाशिव रूप. यही दोनों जगत् के आदिमाता और परमपिता हैं. इनका स्थाई निवास काशी है जिसे शिव के त्रिशूल पर स्थापित माना जाता है. इस परमपुरुष के तीन रूप ब्रह्मा विष्णु और रुद्र हैं. यह त्रिमूर्ति प्रणव अर्थात् ओंकार में निहित है. शिव के पाँच मुख पंचभूत आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी हैं. पृथ्वी सृष्टि करती है, जल पालन और अग्नि संहार या लय करती है. ये तीनों, विधि, हरि और हर हैं . वायु प्राणनिष्क्रमण और आकाश नाद है जो अनुग्रह करता है. ये दोनों भी शिव का ही अधिकार हैं. लय ,प्राणनिष्क्रमण भी अनुग्रह की ही भूमिका हैं. परांबा के ही तीन रूप शारदा, लक्ष्मी और उमा हैं. ये तीनों क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र की शक्तियाँ हैं. 

     ये पाँचों रूप ॐ में निहित हैं.  अकार ब्रह्मा, मकार विष्णु और मध्यभाग  उकार रुद्र है. ऊपर चंद्रबिंदु (  ँ ) साकार सदाशिव और इसके उच्चारण में नाद ही निराकार सत् अर्थात् शाश्वत ब्रह्म है. निराकार से साकार बनते ब्रह्म के वामभाग से विष्णु प्रकट होते हैं. विष्णु के अंगों से जलधारा प्रकट होती है और उसमें अतिदीर्घकाल तक वे चिरनिद्रा में लीन रहते हैं . यही शेषशायी रूप है. इनकी नाभि से कमल उत्पन्न होता है. कमल का गुण है निर्लिप्त रहना जो ब्रह्म का मूल स्वभाव है. इस कमल के नाल से ब्रह्मा की सृष्टि होती है जो शिव का ही दक्षिणभाग है.  ब्रह्मा का मोह उसे फिर से कमलनाल में भटकाकर चक्कर कटवाता है. ब्रह्मा बुद्धि के स्वामी हैं और बुद्धि तो तर्कजाल में उलझकर बार-बार मूलस्वरूप से दूर भागती रहती है और आस्थापूर्ण समर्पण हमें ब्रह्म से एकाकार करवाता रहता है. ब्रह्मा को तब  "तप तप" का स्वर सुनाई देता है और दीर्घकाल तक तप करके अपनी भूमिका में लौटते हैं और सृष्टि करते हैं और यहाँ भ्रमित न हों. इनकी सृष्टि में ही रचयिता ब्रह्मा, पालक विष्णु और संहारक रुद्र भी शामिल हैं फिर सप्तर्षियों, देवताओं आदि की सृष्टि होती है. यह क्रम हर एक कल्प में स्वयं को दोहराता रहता है. 

     यह है मेरे अल्पज्ञान और अल्पबुद्धि की परिधि में सिमटा शिवतत्व और उसके निराकार से साकार होने का सारगर्भित रहस्य. जिसे वेद नहीं समझ सके, उस ब्रह्म की संकल्पना की एक क्षणिक स्पर्श जैसी अनुभुति या फिर उसका भ्रम भी मन को आनंद में भिगोने को पर्याप्त है. आइये आस्था के इस गंगाजल की कुछ बूँदें मन की अंजलि में समेटकर उस  सच्चिदानंद शिवरूप का अभिषेक करें और अभिषेकप्रिय उस सत्यं शिवं सुंदरम् को मनमंदिर में स्थापित करने का प्रयास करें.

द्वारा  : सुधीर अधीर

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