कहानीसामाजिक
लंबी कहानी
"मृग - मारीचिका " ... 🍁🍁
भाग ... ५
कल आपने पढ़ा शेफाली के विवाह का सुनहरा सपना टूट चुका है ... आगे
चन्दर उसके गाल पकड़ कर कह रहा था,
" ओ...हैलो...जिन्दा हो या मर गई ? उठो मैं ऑफिस के लिए निकल रहा हूँ "
" मेरी अनुपस्थिति में घर में किसी को बुला मत लेना "
चेहरे पर छाई कुतित्स मुस्कान के साथ ही आवाज भी कर्कश हो आई है।
शेफाली तिलमिला ... उठी दर्द के मारे उसका शरीर हिल नहीं रहा है।
लेकिन फिर भी कुछ जबाब नहीं देकर मुँह पलट लिया। जैसे मन ही मन सोच रही है,
" कब ये निकलेगा घर से ? "
एक पल को उसकी आंखों के सामने अंधेरा छा गया।
" उफ्फ ...यह क्या हो रहा है मुझे ?
उसकी हालत इतनी बुरी थी कि वह जैसे-तैसे ही उठ पाई।
"चक्कर, उल्टी, उबकाई में क्या कंरू ? "
" शायद रात में भी नहीं खाया था इसलिए ऐसी हालत हो रही है "
किसी तरह किचन में जा कर फ्रिज से निकाल ठंडे दूध से भरे ग्लास उठा कर पी गयी।
कुछ राहत मिली। खिड़की से आ रही ठंडी हवा के झोंके दुखते तन-मन को सहला गये।
बारिश का मौसम था। तो शायद सूरज देवता बहुत गरम नहीं थे। मौसम का मिजाज भी कुछ ठंडा ही लग रहा है।
बाहर चारो तरफ हरियाली छाई हुई है। शेफाली दरवाजा खोल कर बाहर आ गई।
उसे पेट के निचले हिस्से में दर्द महसूस हुआ वह वहीं सीढियों पर बैठ गयी।
सड़क पर बरसात के पानी में उछलते-कूदते बच्चों को देख कर उसके दिल में भी उथल-पुथल मचने लगी है।
क्या ... उसका बच्चा भी ... कभी ...?
लेकिन अगले ही पल ठिठक गयी।
आंख से एक बूंद आंसू लुढ़क गये। उसने पलके बंद कर लीं।
फिर वही आशा!
या दुरा्र्शा ? ... जो चन्दर के रहते किसी प्रकार से संभव नहीं है।
वह आंख में आए आंसुओं को मन ही मन गटकने लगी। चन्दर को बच्चे नहीं पसंद हैं।
शेफाली ने अपने पेट पर हाथ फेरा, उसका हाथ रुक गया जैसे किसी ने अन्दर से उसके हाथ पकड़ लिए हों। उसके पैर कांपने लगे।
फिर से वही सब।
"उसके दिन चढ़ते ही जब वह चन्दर को बताती है तब जैसे वह पागल हो जाता है"
अभी पिछली बार ही तो...
वह जबाब -सवाल करती रही, रोती और मिन्नतें करती रही सिर पटक-पटक कर
" चन्दर मैं अकेली हो जाती हूँ आपके जाने के बाद प्लीज मुझे बच्चा चाहिए "
" आखिर कोई तो हो जिससे मैं बातें कर संकू अपना मन बहला संकू "
पर चन्दर किसी भी तरह नहीं पसीजे थे उलट फुफकारते हुए कहा था...
" चोप्प... साली एक बार कह दिया नहीं तो बस नहीं... मुझे अपने और तुम्हारे बीच कोई ... कोई भी तीसरा नही चाहिए जो मेरे आनंद में खलल डाल पाए "
कहते हुए उसके हाथ मरोड़ दिए थे।
अब तो बात मार-पीट से होने लगी है।
उसका मन कसैला ... हो रहा है। उसने माँ से सुन रखा है ,
" एक माँ अपने बच्चे के लिए भगवान् से भी लोहा ले लेती है क्या सच में ? "
" फिर यह तो मेरे जैसा ही!
नहीं... नहीं, सिर्फ हाड़- मांस से बना तुच्छ हृदयहीन इन्सान है "
अब इस बार और नहीं। पिछली ही बार डॉक्टर ने कह दिया था,
" आपकी जान का खतरा है मिसेज शेफाली बार-बार आपलोगों की असावधानी से बच्चा अवौर्ड हो जाना "
" उन दिनों आप विशेष सावधानी बरता कीजिए " वह कट कर रह गई थी।
लेकिन चन्दर ?
उसे क्या उसकी परवाह है जरा सी भी ?
" हो जाने दो खतरा है तो है, मैं देख लूंगा़
डॉक्टर की ऐसी की तैसी ? "
सुन कर शेफाली के कान झनझना उठे थे।
उसकी अधखुली आंखें बीते दिनों की चुभन... से फिर से लाल हो उठी।
बेहद तल्खी से मिले इस जबाव से
उसकी पलकें भीग गयी आंखों के सामने अंधेरा छा गया था।
"कितनी आसानी से कह दी तुमने यह बात चन्दर,
"तो हो जाने दो... मेरी तनिक भी परवाह नहीं "
इतने हल्के से कह दी इतनी बड़ी बात। शेफाली अन्दर से टूट गई। अब बहस का कोई अर्थ नहीं बनता है।
यही सोच कर वह चुप रह गई।
पर हाँ उसने मन ही मन तय कर लिया था,
" जिसको मेरे वजूद की तनिक सी भी चिंता नहीं उसके साथ क्या ही रहना ? और क्यों रहना ? "
" लेकिन आगे कैसे, क्या करूंगी ? सब अंधकार में है "
चन्दर को बच्चे 'अनवांटेड' लगते हैं। शेफाली का मन उससे पूरी तरह हट चुका है ,
" उसके साथ रहना मतलब अपनी ममता का गला घोंट देना है। स्त्रित्व के साथ छल करने जैसा होगा "
शेफाली का मन अपराध बोध से भर चुका है पर क्या ?
" उसकी ममता भी सूख चली है ?
क्या उसके अन्दर की औरत भी मार खा-खा कर मर गयी है ?
उसकी छाती में कोई हलचल नहीं होती है ? "
" वह पत्थर तो नहीं है। उसे भी दर्द होता है। "
वह घुटनों में सिर छिपा कर बैठ गई।
आखिर क्या करे वह ?
आज उसे अपने बाबा की बहुत याद आ रही है,
" अगर उन्हें या माँ को यह सब पता चले तो क्या चन्दर से बचा लेगें मुझे "
"या फिर पति-पत्नी का मसला मान कर इसमे दखल ही नहीं देगें " ।
" और फिर साहिल क्या मुझे छोड़ देगा जिन्दा ही नहीं मार देगा ? "
सारा दिन शेफाली चन्दर की कैद से छुटकारा पाने के विभिन्न तरीकों पर मंथन करती मन ही मन विचारों के भंवर में डूबी रही।
बहुत हिम्मत करके उसने रुपाली को मेसेज किया।
फिर बार-बार फोन खोल कर देखती रही पर कोई जबाव नहीं देख कर परेशान होती रही।
रुपाली शायद काम में लगी होगी यह सोच कर बुझे मन से घर के कामों में लगी रही।
तभी कॉलवेल बजने की आवाज़ आई।
उसने जा कर दरवाजा खोल दिया।
चन्दर आपे से बाहर हो कर बोला ,
" इतना धीरे-धीरे चलती हो आखिर पाँव की मेंहदी कब उतरेगी तुम्हारी ? "
सूखी हँसी हँस कर ,
" कैसी बातें करते हो चन्दर वो तो कब की छूट गई ? ,
अब चल कर ही ना आती उड़ तो सकती नहीं हूँ सारे पंख तो कुतर कर रख दिए हैं तुमने "
" अच्छा बहुत बोलना सीख लिया है तुमने !
चलो कमरे में आओ अभी इसी वक्त "
सिहर ... गयी शेफाली ,
" क्या ? क्या मतलब है तुम्हारा ?
मुझे आज से चार दिन के टूर पर बाहर जाना है तो पूरा हिसाब -किताब तो चुका लूँ "
शेफाली मन ही मन ...
" या ... मेरे ईश्वर आज शायद तुम्हे मेरी सुध आई है "
आत्मसंतुष्टि से भर गयी।
जब खुशियाँ रास्ता भूल जाती हैं तो उसकी एक झलक ही काफी होती है।
उसके इस मनोभाव से पूरी तरह अनभिज्ञ था चन्दर ...
क्रमशः
सीमा वर्मा / नोएडा