Help Videos
About Us
Terms and Condition
Privacy Policy
" मृग-मरीचिका " भाग ...३ 🍁🍁 - सीमा वर्मा (Sahitya Arpan)

कहानीसामाजिक

" मृग-मरीचिका " भाग ...३ 🍁🍁

  • 150
  • 16 Min Read

लंबी कहानी
#शीर्षक
" मृग-मारीचिका " भाग...३ 🍁🍁

शेफाली की माँ की अवस्था दिनों-दिन खराब होती जा रही थी। शायद उन्हें इस तरह सयानी, जवान बेटी का अकेला रहना एवं यों ही अकेले घूमना-फिरना रास नहीं आ रहा था।
वे चाहती थींं कम से कम एक बेटी को तो खुद अपने सामने उसके घर विदा कर सकें। बस दिन-रात वे इसी चिंता में घुलती रहतीं।
और तब भगवान् ने भी शायद उनकी प्रार्थना सुन ली थी।
उस दिन शाम में पिता को खुश-खुश हाथ में जलेबियों से भरे दोने के साथ प्रवेश करते देख शेफाली भी खुश हो गई थी,
" कुछ बात तो है तभी बाबा मीठे के साथ आए हैं और सीधे माँ के पास गये हैं। नहीं तो इन दिनों वे माँ से भी नजरें चुराने लगे हैं "
" सुनती हैं शेफाली की माँ आज अपनी इस लक्ष्मी का रिश्ता पक्का कर आया हूँ"
कहते हुए उनकी आंखें चमक रही थीं "और माँ भी ? " ,
" रिश्ता ? किससे ? कहाँ ? " एक साथ कितने सवाल पूछ बैठी थीं।
" अपने कस्बे में जो सरकारी ऑडिटर 'चन्दर बाबू ' आएं हैं उन्हीं से "
सुन कर माँ रुग्ण शरीर से ही ठाकुर वाड़ी जा ठाकुर जी के पाँव पकड़ कर रोने लग गई थीं।
लेकिन शेफाली भी ?
नहीं वो तो ना हँस सकी ना ही रो पाई थी।
यह सुनकर वह चुपचाप अपने कमरे में चली गई थी।
" मेरी शादी और किसी ने भी मेरी इच्छा तक जानने की जरुरत नहीं समझी "
लड़कियां सिर्फ फैसले सुनने के लिए होती हैं सुनाने के लिए नहीं।
उसके छह महीने बाद ही शेफाली -चन्दर की शादी सादे समारोह में सम्पन्न हो गई थी। शेफाली अपनी बीमार माँ और बाबा को रोता छोड़ चन्दर के साथ चली आई थी।
अन्जान सफर पर एक नितांत अन्जान हमसफर के साथ
उसके स्वयं के आंसू निकले ही नहीं
बचपन से माँ ने यही सिखाया था कि ,
" तुम्हारा पति ही तुम्हारा देवता है किसी स्त्री के लिए पहले पिता और फिर पति ही उसका रक्षक होता है "
"वे हमारा भला-बुरा हमसे बेहतर जानते हैं और वे जो भी फैसला लेगें उन्हें निभाना हमारा कर्तव्य ही नहीं धर्म है "।

तो बस शेफाली शुष्क आंखों से इन्हीं बातों को शादी के जोड़े की आँचल के गाँठ में बाँध कर कर्तव्य पथ पर अपना धर्म निभाने चन्दर के साथ चल पड़ी थी।
जाते-जाते छोटी रुपाली ने उसके हाथ कस कर पकड़ लिए थे।
उस वक्त शैफाली की आंख से दो बूंद आंसू रुपाली के हाथ पर गिर पड़े।
वे दो बहने बचपन से साथ-साथ खेली- खाईं जरूर हैं लेकिन दोनों में ही अन्तर है।
एक ने अपनी मर्जी से घर की ड्योढ़ी से कदम बाहर निकाले थे। वह पढ़-लिख कर बड़े शहर में नौकरी कर रही है।
जबकि दूसरी उसके पीछे ताकत बन कर खड़ी थी घर की तमाम जिम्मेदारियों को संभालती हुई।
आज तक अब उनकी राह अलग हो रही है। यह सोच शेफाली का कलेजा छलनी हो रहा था।
एक को अपने हक के लिए लड़ना आता है जबकि दूसरी किसी के लिए अपने हक को भी त्याग कर देने को हमेशा तत्पर रहती।
बस यही फर्क है दोनों में।
सब कह रहे थे लड़का 'हीरा' है तभी तो कस्बे की सीधी-सादी या यों कहें 'गंवार' सी लड़की को ब्याह रहा है।
अब इस बात को उनके मापने का पैमाना क्या है यह तो शेफाली नहीं जानती लेकिन हाँ जब सब कह रहे हैं तो जरूर ऐसा ही होगा।
यही मान कर शेफाली ने माँ की दी हुई परंपरा की सीख को निभाने की सोच अपनी सुहाग रात के दिन सजी-धजी पलंग के किनारे में बैठी थी।
विदा होते वक्त रुपाली की कानों में चुपके से कही हुई बात,
" जीजा सा बहुत अच्छे हैं दीदी तुम्हें बहुत प्यार करेंगे " से उत्साहित थी। किसी के होने के अहसास मात्र से ही शर्म से घुली जा रही थी।
तभी चन्दर के पैरो की आहट नजदीक आती सुनाई दी थी। वह दबे कदमों से अन्दर आया था। शेफाली की नजरे नीची झुकी थीं।
वह सुनहरे खयालों की दुनिया में विचर रही थी।
जब चन्दर की आवाज ने उसका ध्यान तोड़ा था ...
क्रमशः
सीमा वर्मा /नोएडा

FB_IMG_1650386589538_1650539647.jpg
user-image
दादी की परी
IMG_20191211_201333_1597932915.JPG