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" मृग मारीचिका " भाग ... २ 🍁🍁 - सीमा वर्मा (Sahitya Arpan)

कहानीसामाजिक

" मृग मारीचिका " भाग ... २ 🍁🍁

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  • 22 Min Read

#शीर्षक
" मृग-मारीचिका" भाग ....२ 🍁🍁

कल आपने पढ़ा ... चन्दर के कृत्य से शेफाली बेसुध सी हो गई है।
आज आगे...

आवेग के थम जाने पर चन्दर मानों शेफाली को परास्त हुई जान कर संतुष्ट भाव से उठ गया।
विजेताओं वाली मुस्कान उसके चेहरे पर छा गई।
इधर सुबह -सुबह ही शेफाली का आस्तित्व चन्दर की मनमानी में डूबकर पिघल चुका था।
वह बिस्तर पर ही पड़ी रही।
लेकिन आखिर कब तक पड़ी रहती अभी चन्दर बाथरुम से निकल आएगें और तब उन्हें ऑफिस जाने की जल्दी मचेगी।
उसे अपनेआप पर घिन आ रही थी।
शादी के चार साल होने को आए हैं। लेकिन वह अब तक चन्दर की चिढ़ और उसकी अन्दर हर वक्त धधकती हुई इस आग का कारण नहीं जान पाई है।
दो बेटियों के पिता हृदयनाथ बाबू की गाँव से सटे हुए छोटे से कस्बे में दुकानदारी थी। स्वंय तो वे गद्दी पर बैठते लेकिन बेटियों को पढ़ाने-लिखाने में उन्होंने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी।
माँ बीमार रहा करती थी। लिहाजा उनकी साज-सम्भाल और पूरे घर की जिम्मेदारी शेफाली के कंधो पर आ पड़ी थी। इसलिए वह ग्रैजुएशन के बाद आगे की पढ़ाई करने शहर नहीं जा सकी थी।
लेकिन छोटी बहन रुपाली को पढ़ाने और शहर में लगी नौकरी को करने में कभी बाधा भी नहीं बनी थी।
बल्कि उसने तो अपने जी-जान लगा दिए थे रूपा को आगे बढ़ाने के लिए।
इस बात के लिए सभी उसके कायल थे।
शेफाली ने इसकी शिकायत कभी किसी से नहीं की थी कि आखिर उसे कस्बे के दाएरे में ही सीमित हो कर रहना पड़ा है।
उसके पिता को उसके विवाह की चिंता सता रही थी। वे दिन रात इसी चिंता में डूबे रहते थे।
शेफाली दिखने में भी बहुत अच्छी थी। सांवली सूरत पर बड़ी, गहरी और काली आंखें जिसमें झांक पाना शायद सबके लिए संभव नही था।
जिस पर कमर तक लंबे बाल फिर जिस सुंदरता में सौम्यता घुल जाए उसके तो कहने ही क्या !!
उन्हीं दिनों चन्दर उस कस्बे में चल रहे सरकारी ऑडिट के लिए आए हुए थे।
शैफाली की किस्मत हमेशा उससे आंख-मिचौली ही खेलती रही है।
यह तो शेफाली को बाद में पता चली थी। कि चन्दर वही शख्श है जो उस दिन उसे मन्दिर की सीढियों पर मिला था।
शेफाली को चित्रकारी का शौक़ बचपन से ही था।
माँ हमेशा बीमार रहतीतो उसकी सेवा करने से बचे वक्त में शेफाली ने एक विचित्र शौक पाल रखा था।
मंदिर जा कर उसकी सीढ़ियों पर बैठ घंटों चित्रकारी करने का।
एकाग्र चित्त हो कर उन चित्र के चेहरे बनाती... बड़ी-बड़ी आंखें, लंबी नाक, सुराहीदार गर्दन लेकिन उन सभी चित्रों में एक समान भाव होते,
" उनका मुस्कुराता चेहरा"
शेफाली के मनोभावों के अनुरूप ही। उस दिन भी वह यही कर रही थी। जब किसी के खांसने की आवाज आई उसने आंखें उठा कर सामने खड़े अजनबी को देखा ,
"ओ... माँ " शेफाली के मुँह से निकल गया।
अजनबी उसकी बनाई मूर्तियां बड़े ध्यान से देख रहा था अचानक पूछ बैठा,
" बहुत खूबसूरत बनी हैं ये मूर्तियां लेकिन एक बात जो नागवार गुजरी मुझे वह यह कि लगभग सभी के चेहरे पर एक सी मनमोहक मुस्कान "
" अब जिन्दगी इतनी आसान और खुशनुमा तो नहीं बल्कि हजार उतार-चढ़ाव से भरी हुई रहती है "
" जिनसे गुजरते हुए हम अनुभवों की भठ्ठी में तप कर निखरते हैं "
" तो अलग-अलग मनोभावों से भरी हुई होनी चाहिए थी ना कि समान भाव-भंगिमा में मुस्कुराती हुई "
अजनबी जैसे अपनी रौ में बहता हुआ बोलते ही चला जा रहा था।
शेफाली उसकी बातों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी।
उसने हतप्रभ होते हुए कहा था,
" आप सही कह रहे हैं। गलती हुई है मुझसे। जिन्दगी कहाँ हमारी सोच की तरह सीधी-सादी होती है "
लेकिन ... हमें उम्मीद तो हमेशा बेहतरी की करनी चाहिए ना ?
शेफाली भी उतनी ही तत्परता से बोल कर चुप हो गयी थी।
उधर अजनबी जिसका नाम चन्दर है। उसकी गहरी आंखों के थाह लेने में लगा था।
" शायद यही वह लड़की है जो मेरे जीवन में फैले गहरे अंधेरे को दूर करने का माद्दा रखती है और चांद बन कर चमकने की हिम्मत कर सकती है "
शेफाली अपनी बातों को पुरजोर तरीके से साबित करने में लगी थी और चन्दर उसकी सधी हुई बातें सुनता हुआ उसे मन ही मन तौलने में लगा हुआ था।
चन्दर की अपनी जिन्दगी भी कुछ कम बदनुमा और कालिख भरी नहीं थी।
जन्म देने वाली माता ने उसका त्याग कर दिया था। उसे पिता के भरोसे छोड़ कर किसी और के साथ चली गईं थीं।
लिहाजा वह कुलटा, बदचलन, और भी न जाने क्या...क्या बचपन से ही इन शब्दों से भली-भांति परिचित था।
उसका विश्वास समस्त स्त्रियों पर से उठ गया है।
सहसा चन्दर ने सीढियों पर बैठ अपनी आंखे मूंद ली थीं।
पहली नजर में शेफाली को चन्दर सफल ,आत्मनिर्भर और जवान दिखा।लेकिन उसकी बातें कहने और सुनने का अंदाज,
" मानो अपने आप से संघर्ष करते हुए बेहद दुविधा ग्रस्त और परेशान कर देने वाला "
" उँह ... मुझे इससे क्या ? "
फिर भी पूछ लिया
"क्या हुआ आपको ,सब ठीक तो है ना, मतलब आपकी तबियत तो ठीक है ना ?"
पूछती हुई सहारा देने को हाथ बढ़ाया। लेकिन चन्दर ने अस्वाभाविक रूप से उसके हाथ को झटक बेहद रुक्ष स्वर में
"तुम्हें इससे क्या '
बोलता हुआ उठ खड़ा हुआ।
अपमानित सी शैफाली भी चुपचाप सीढियां उतरने लगी थी।

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दादी की परी
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