कहानीसामाजिक
शनिवार
#शीर्षक
"अपना गाँव अपना देश" 🍁🍁
बोर्डिंग पास, सिक्योरिटी चेक और चेक इन की अफरातफरी से उबरने के बाद प्रतीक्षा लाउंज में बैठी रुचिका का ध्यान चारो तरफ से घूम कर अपने परिधान की ओर चला गई
उसने वही मोतिया कलर की सलवार सूट पर लाल जौर्जेट का लहरिया दुपट्टा पहन रखा है जिसे पहन कर इंडिया से यहाँ इन अजनबियों के बीच आने समय फ्लाइट में पहन रखा था और माँ ने सिक्के से नजर उतारते हुए,
" कितनी प्यारी लग रही है तू बिन्नो "
कान के पीछे काजल का टीका लगाते समय दबी लेकिन कड़ी आवाज में फुसफुसा कर हिदायत दे दी थी,
" देख बिन्नो जैसी कोरी जा रही वैसी ही कोरी लौट कर आना मुझे कोई फिरंगी अपने घर के लिए नहीं पसंद है ,
"सुना है वहाँ ... खुल्लम खुल्ला सेक्स की बयार बहती है "
रुचिका सहम कर चुप हो गयी। एक क्षण के लिए तो वह भी उलझन में पड़ गई थी।
महज खेल-वश ही शुरुआत हुई थी। अप्लाई ,सेलेक्शन, इंटरव्यू ... और भी न जाने क्या-क्या से गुजरती हुई वह हायर स्टडीज के लिए ' अटलांटा युनिवर्सिटी यू एस ए ' के लिए रवाना हो रही थी।
अम्मा-बाउजी सब के निरंतर समझाने के बाद,
"बिटिया अब हमारा देश हिंदुस्तान भी लगातार प्रगति कर रहा है। यहाँ भी नयी तकनीक आ रही है,
"तुम्हें अपनी प्रतिभा निखारने का पूर्ण अवसर प्राप्त होगा "
रुचिका ने कहाँ किसी भी सुनी थी ?
उसे तो बस एक ही धुन सवार थी ,
"मुझे बाहर जाना है " यह देख कर तब बाउजी ने भी हथियार डाल दिए थे।
और वह अपने सपनों को पूरा करने के लिए अन्जाने देश ,अन्जाने लोगों के बीच नये माहौल में चली आई थी।
लेकिन सात-आठ महीने गुजरते ही उसे अहसास होने लगा था इस हवा के साथ वह अधिक देर तक नहीं बह पाएगी।
एक लंबी उसांस भरी रुचिका ने... फिर अपनी इधर- उधर भटकती निगाहें एअरपोर्ट की गहमागहमी से हटा कर खुद पर केन्द्रित कर लीं।
यह दो साल उसने किस तरह घुट-घुट कर गुजारे हैं।
सहपाठियों के बीच अपने संस्कार , मान-मर्यादा, ढृढ़ पसंद-नापसंद सबको ओल्ड कल्चर कह कर वह एक सिरे से नकार दी गई थी।
यहाँ की खुली संस्कृति में वह अब तक कहाँ ढ़ल पाई है ?
उसके सहपाठी 'हैरी' के बहुत प्रयास करने पर भी वह अब तक उसके साथ स्वीमिंग पूल में नहीं उतरी थी।
ना ही उसकी सख्त नाराजगी झेलती हुई भी उसकी सिगरेट से कश लगा पाई थी।
अभी पिछले ही हफ्ते की तो बात है।
कई बार प्रयास करने पर भी जब अम्मा की कड़ी हिदायत याद आ जाती तो वह खुल कर वह हँस लेती थी।
लेकिन इस बार फाइनल सेमेस्टर
की फेयरवेल पार्टी पर ...
बहुत हिम्मत कर रुचिका ने जैसा देश वैसा वेश करने की सोच एक लो गले का बैकलेस गाउन खरीदा ।
जिसे पहन कर शीशे के सामने खड़ी हो स्वंय निहारती खुले- खुले कंधे के नीचे झांकते यौवन को देख खुद ही शर्मा कर एक शॉल रख लिया।
उस दिन हैरी और लगभग सभी सहपाठियों की आंख में अपने लिए प्रशंसा देख कर उसे गर्व महसूस हुआ था।
हैरी के साथ नृत्य भी किया।
लेकिन जब बेतकल्लुफ हो कर हैरी ने वाईन की दो बोतलें निकाल नुमाइशी अंदाज में टेबल पर रखा... तब रुचिका चौंक उठी।
अंतस में संदेह उभरा ,
"अगला ऑफर फ्री सेक्स ना हो ? " ओहृ... कहाँ फंस गयी ?
मैं ऐसी तो नहीं!
सोचती हुई शॉल को कस कर गले के चारो ओर लपेट लिया था।
हैरी ने बहके अंदाज में वाइन की तरफ इशारा किया।
रुचिका ने भी मन ही मन ,
"सारे जहाँ से अच्छा हिंदुस्तान हमारा " बुदबुदाते पूछ लिया,
" यह चैंलेज है या मनुहार ?
"तुम जो समझ लो ?
" ओ... तो...सवाल के जवाब में सवाल ? आज चिड़िया को फंसा कर ही रहेगा।
"डैम यू बैकवर्ड इंडियन "
वाले भाव हैरी के चेहरे से स्पष्ट नजर आ रहे हैं "
रुचिका भी उस दिन जैसे कुछ मन ही मन तय कर के गई थी।
अभ्यास हीन रुचिका ने निर्लिप्त भाव से वाइन के घूंट मुँह में भर जीभ होठों पर फेर लिए फिर रोल कर पास रखे गमले में अंग्रेजी कुल्ला कर दी थी।
हैरी ने उठ कर उसके हाथ थाम लिए थे। जिसे झटक कर उसे हक्का-बक्का छोड़ अपने शॉल को कंधे पर कस कर लपेटती उठ कर चली आई थी।
फिर वापस उसके पास कभी नहीं लौट कर आने के लिए।
माँ की सीख ' जड़ों से जुड़े रहने' की दिल में अंदर तक बसी... हुई उसके मन-मष्तिष्क के द्वार पर दस्तक दे रही है।
स्वलिखित /सीमा वर्मा