कविताअन्य
एक बार सपने में देखा महारानी कैकयी को,
मैं पूछ बैठी कैकयी से
कैकयी तुम क्यों बदनाम हुई?
भरत से अधिक था तुम्हें राम पर नेह,
राम रहते थे सदा तुम्हारे गेह,
सूरज चन्दा वारती थी निशदिन तुम ,
मेरे राम मेरे राम रटती थी तुम सनेह ।
कैकयी———————————-।
लालसा जो होती तुम्हें राज की,
राज तिलक पर न सहमत होती
भर नयनों में नेह,
कनक महल जो सपना तुम्हारा,
न देती राम-सिया को सनेह।
कैकयी—————————।
राम के काज बनाने को पी गई हलाहल,
किया मन विपरीत खेल,
रावण का दहन के लिए जो तुमने किया,
और कोईनहीं कर पाता।
उपकृत हुए राम पर बोल नहीं पाए
तभी राम का तुम पर सबसे अधिक सनेह।
कैकयी————————————।
नयनों में अश्रु भर चली गई कैकयी
मैं ठगी सी खड़ी रही निहारती उनको।
टूटा सपना आँख खुली सोचा यह तो थाभ्रम था
पर सोचा तो जाना मेरे मन में सदैव था यह प्रश्न।
राम नाम से पावन होता यह संसार
राम के ससंर्ग में नहीं हो सकती कैकयी छली,
कुछ तो इसमें होगी ईश्वर की माया,
मैं क्षुद्रबुद्धि भेद न सकती उनकी माया।
भेद नहीं सकती उनकी माया।।