कवितालयबद्ध कविता
( दिन में रैलियों में भीड़ जुटाने की अंधाधुंध कवायद
और फिर रात में कर्फ्यू. इस दोगलेपन पर प्रस्तुत है,
" ओ मित्रों " बनाम " ओमिक्रोन " )
काली अँधेरी रातों में
अनजान और सुनसान राहों पे
चमगादड़ का कुलदीपक
एक नया मसीहा निकलता है
रैलियों से घबराकर
जुमलेबाजी से भय खाकर
रात के काले साये में
अँधियारे के सरमाये में
खामोशी का दामन
पकड़कर चलता है
हाँ, बोलो, कोरोना,
तुम वो ही हो ना ?
भाषणों के राशनों से
पेट भरते रहते मुखिया
सोशल डिस्टेंसिंग का नाटक
करते रहते बहुरूपिया
दिन में " ओ मित्रों "
रात में फिर ओमिक्रोन
यह सब कुछ देख-सुनकर
भीड़ में यूँ सिर धुन-धुनकर,
" इतने रूप तो
नहीं हैं
मेरे पास भी
लगता है,
ये सब तो हैं
मुझसे कुछ ज्यादा
खास ही
चलो अंधेरे में थोड़ी सी
चहलकदमी हो जाये
खाली बैठा रहता दिन भर
दूर थोड़ी सी बदहजमी हो जाये "
देखकर तेरी यह हरकत
आयेंगे आदेश झटपट
" रोको इसे लगाकर
नाइट का कर्फ्यू "
बोलो सभी बजाकर ताली,
" साहब, थैंक्यू "
द्वारा : सुधीर अधीर