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मैं एक सोयी चेतना हूँ - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

मैं एक सोयी चेतना हूँ

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  • 14 Min Read

मैं एक सोयी चेतना हूँ
जड़ता के इस तमस में
मानव की हर बहक में
स्वयं का अस्तित्व खोजती
इन काले मेघों के बीच
कभी-कभी यूँ यहीं-कहीं
बिजली सी बन कौंधती
मानव की खोयी चेतना हूँ

हाँ, मैं एक संवेदना हूँ,
एक खोयी सी संवेदना हूँ
पाषाण होते जा रहे इंसान की

मंदिरों में कैद कर,
मन से बाहर ढकेल कर
ढेर सारे बाहरी आडंबरों के
चमचमाते आवरण में लपेटकर,
हर जीवन से अज्ञातवास सा झेलकर
हर मन के भूले-बिसरे,
नफरत की दीवारों से
बँटते, छँटते से भगवान की

मानव-मानव में भेदकर,
निर्ममता से छेद-छेदकर
कटते-मरते इंसान की

वृद्धों को वृद्धाश्रम भेजकर,
अपना, सिर्फ अपना ही
स्वार्थ मन में सहेजकर,
तार-तार से होते
सब संबंधों की
एक सोई संवेदना हूँ
हर एक आहत से हृदय में
सिमटी एक वेदना हूँ

मैं सड़कों पर धूल फाँकता,
युगचेतना के यक्ष-प्रश्न पर
निरुत्तर, बगलें झाँकता
एक खोखला सा,
दोगला सा विकास हूँ

मैं मजबूरों के, मजदूरों के
पाँव तले खिसकी धरती,
उनके टूटे सपनों का एक
मुठ्ठी भर आकाश हूँ

व्यवस्था के गोरखधंधों से,
अपने थके-थके कंधों पे,
जीवन का अभिशाप ढोती,
हाँ, खुद की ही लाश ढोती
एक टूटी सी आस हूँ

हाँ, मैं खुद के ही आँकड़ों में
बिखरता हर शून्य खोजता,
भरमाते से, पगलाते से
भाषण में खोया राशन,
बनकर बस एक आश्वासन,
खुद का खोया मूल्य खोजता,
खुद से ही अनजान सा,
खोता खुद की पहचान सा
चकाचौंध सा करता सबको,
कंचनमृग सा चमचमाता प्रकाश हूँ

जी हाँ, आप सही समझे हैं,
मैं धरातल से कटा सा,
रंग-बिरंगी पतंग सा उड़
आसमान से सटा सा,
आम जीवन से हटा सा,
गुमराह करती आँधियों के
खूबसूरत से पंखों पर लदा सा
विकास हूँ

सिर्फ दूर से अच्छा लगता,
कड़वे सच के सामने,
झूठा और कच्चा लगता
वक्त से पहले बूढे़ से होते देश के
चेहरे जैसा पोपला सा विकास हूँ

मैं मानव की लिप्सा से
धूमिल होता सा गगन हूँ,
मैं उसके पापों को ढोता
दूषित होता सा पवन हूँ
मैं सिर्फ धुआँ-धुआँ ही
होता रहता सा एक अनल हूँ
मैं बेटों के पाप धोता,
अपनी निर्मलता खोता
गंगा-जमुना का जल हूँ

मैं पेडों की छाँव खोजता,
बेबस अपना मन मसोसता,
मन में भरते संताप से,
पल-पल बढ़ते इस ताप से,
हर रोज तपन का कफन ओढ़ता,
धरती माँ का आँचल हूँ

अपनी हरियाली खोती,
सूनी और खाली गोदी,
देख-देख बेबस रोती
कटी-फटी सी धरती माँ का
आहत मन हूँ
मैं लुटे-पिटे हिमालय का
घायल तन हूँ
मैं हरियाली को चीरती
राहों सा निष्ठुर मन हूँ

हाँ, मैं ब्रह्मा की
सर्वोत्तम रचना मानव का,
हाँ, खुद की कब्र खोदते,
आत्मघाती दानव का,
चेतना-संवेदना से शून्य मन हूँ

मैं मृगतृष्णा से भरमाया सा,
भूला-भटका सा हिरण हूँ
मैं स्वयं का अस्तित्व खोजती
प्राची की पहली किरण हूँ

हाँ, मानव के हृदय की,
मशीन सी बनती हुई
एक धड़कन हूँ
मैं मानवता के आँचल को
काट-छाँटकर छोटा करती
चिंतन की एक सिकुड़न हूँ

मैं इंसान नहीं,
सिर्फ एक रोबोट हूँ,
चेतना से आँख मूँदकर,
अंधकार में डूबकर,
एक और भस्मासुर बनकर
खुद के ही हाथों,
खुद के ही भविष्य पर,
खुद के ही अस्तित्व पर
एक गहरी चोट हूँ
मैं इंसान नहीं,
सिर्फ एक रोबोट हूँ

द्वारा : सुधीर अधीर

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