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आ, जिंदगी, पास आ - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

आ, जिंदगी, पास आ

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आ, जिंदगी, पास आ
तू इतनी क्यूँ उदास, आ
क्यूँ अनबुझी हर प्यास, आ
क्यूँ ठंडी सी हर साँस, आ
क्यूँ बिखरी हर एक आस, आ
आ, जिंदगी, पास आ

आ, तुझ पे एक गजल लिख दूँ
एक बिंदास हंँसी से तेरे
हर तनाव का हल लिख दूँ
इस ठहरी-ठहरी सी डगर पे
तेरा हमसफ़र बन के
हर रोज नयी एक कोशिश से
हर लमहे की एक नयी सी कशिश से
हरदम नये कदम से
एक पहल, एक हलचल लिख दूँ
तेरे सीने में सोये-सोये, खोये-खोये से
बेमन मन में एक नयी धड़कन लिख दूँ

बन एक नया अहसास, आ
आ, जिंदगी, पास आ

उम्र की झोली से
हर लमहा चुराकर
हर आज में सिमटे हुए
गुमनामी की चादर में लिपटे हुए
हर अवसर की आहट पर
हौले-हौले मुस्कुराकर
वक्त के नक्शे कदम पर,
एक खुशनुमा अहसास से
एक नया फज़ल लिख दूँ
आ, तुझ पे एक नज्म़ लिख दूँ
आ, तुझ पे कविता लिख दूँ
इन रूखी-सूखी, रेतीली सी
पथरीली सी राहों पे
भावों की एक इठलाती सी
सरिता लिख दूँ

बनकर जीने की नयी वजह
हर एक रात की नयी सुबह
बन एक नया आगाज़, आ
आ, जिंदगी, पास आ

हर बेखुदी के झुरमुट में
अहसास की हर करवट पे
तनहा-तनहा बूँद-बूँद से
हर लमहे को ढूँढ ढ़ूँढ के
पलकों के साये में पलते
हर सपने की हर आहट पे
आँसू बन-बनकर छलके से
भीगी पलकों पर ढलके से
कुछ बूंँद-बूँद बन बिखरते
कुछ मोती बनकर निखरते
जज़्बात की महकी-चहकी सी
मुस्कुराहट पे

बन एक नया अंदाज, आ
बन धड़कन का एक साज, आ
बन एक नया परवाज़, आ
हर मासूम सपने का,
बन एक मुठ्ठी आकाश, आ
बन रोज नया एक आज, आ
आ, जिंदगी, पास आ
आ, जिंदगी, पास आ

है खुद से क्यूँ अनजान, आ
खुद को खुद ही पहचान, आ
वक्त की इन भूलभुलैया सी,
भटकाती-अटकाती सी
टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों पे
बन एक नयी पहचान, आ
बन एक नयी मुस्कान, आ
बन खुशनुमा अहसासों का
एक नया जहान, आ
बन लमहा एक बिंदास, आ
बन एक नयी सी आस, आ
बन जीने की एक आस, आ
बूँद-बूँद कर
घूँट घूँट भर,
हर आज के हर लमहे को,
बन पीने की एक प्यास, आ
आ, जिंदगी, पास आ
आ, जिंदगी, पास आ



द्वारा: सुधीर अधीर

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