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"रामरती चाची " 🍁🍁 समापन भाग - सीमा वर्मा (Sahitya Arpan)

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"रामरती चाची " 🍁🍁 समापन भाग

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#शीर्षक
" रामरती चाची " समापन अंक 🍁🍁
धीरे -धीरे रामरती ने गृहस्थी की कमान अपने हाथों में ले ली और अपने मीठे स्वभाव के अनुरूप ही अपनी टपरी वाली दुकान का नाम रखा " रसभरी चाय की दुकान "।
कॉलेज के लड़के-लड़कियों के लिए तो वह दुकान स्वर्ग ही साबित हुई है।
उन्हें देख कर रामरती की आंखों में पारे की सी चमक आ जाती है। सबसे बहुत प्यार से बाते करती है।
योगेश की माँ चूल्हा संभाल लेती है जबकि रामरती सबका आर्डर संभालती है।
सबसे मुश्किल तो तब होती है जब कभी-कभी बेटे के गम से बौखला कर रामरती को कोसने लगती है उसकी बातें सुन कर जब राह चलते चटखारे लेते हैं तब रामरती टोकती है,
" माँ यहाँ तो अपनी गाथा मत छेड़ें बच्चे सुनेंगे तो क्या कहेगें ?
दुकान पर आना छोड़ देगें तो हमारा गुजारा कैसे होगा ? "
योगेश के जाने के बाद तो वैसे भी रामरती की नींद कम हो गई है पर जब कभी माँ उसे पानी पी-पीकर कोसने लगती है तो उस नींद की जगह न जाने कौन सा किसका इंतजार उसकी आंखो में घिर जाता है।
वह छवि योगेश की तो हर्गिज नहीं होती हाँ गली के आखिरी छोर पर रहने वाले 'बिल्लू पहलवान 'का जरूर रहता है जिसने फागुन की भरी चढ़ती दुपहरिया में रामरती का हाथ पकड़ कहा था,
" चल रामरती कंही और चलते हैं "
" कहाँ "
"वो तो हम आगे पीछे देख लेगें पहले चल कलकत्ते चल कर योगेश को ढ़ूढ़ेगें । रही अम्मा तो उसे यहाँ तेरे बगैर भी कोई ना कोई देख लेगा "
"चल हट, खुद तो मारा-मारा फिरेगा मुझे भी चैन से न रहने देगा ,
"अब आधी जवानी तो बीत गयी रहा बुढापा तो वह भी इस टपरी के सहारे कट जाएगा " कह हाथ झटक कर चली आई थी।
तब से यदाकदा टीस का एक झटका उसकी गर्दन में उठता है और शांत होता रहता है। यह टीस कभी योगेश के लिए उठती है जिसने भरी जवानी में उसकी कद्र ना की तो कभी बिल्लू के लिए जिसने ढ़लती उम्र में भी उसकी पेशानी चूमनी चाही।
अम्मा के सभी इंतजार के रंग तो योगेश के जाने बाद काले पर गये हैं।

पर उसके अपने इतंजार का रंग मौसम के बदलते रंग की तरह कभी लाल, तो कभी हरा और धूसर होता रहता है। और कभी इस कशमकश में जब उसे कुछ नहीं सूझता दुकान में बैठे छात्र-छात्राओं से लापरवाह सुरीले अंदाज में गाने लगती है...

" छोरा रे मेरे हाथो में भी दे तीर कमान ,
अटारी पर बुलबुल बैठी है उसे भगाऊंगी
छोरा रे मोहे दे तीर-कमान... "
और वे सब बच्चे भी उसके सुर में सुर मिलाते गा उठते हैं जैसे इसके द्वारा ही रामरती के अन्तर मन तक उनकी पंहुच हो रही हो।

समाप्त

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दादी की परी
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