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"रामरती चाची " 🍁🍁 अंक ... १ - सीमा वर्मा (Sahitya Arpan)

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"रामरती चाची " 🍁🍁 अंक ... १

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#शीर्षक
" रामरती चाची " 🍁🍁 भाग ... १
फागुन की मस्ती भरी बयार में आज कथा सुनाती हूँ "नैएका गाँव" की जिन्दादिल रामरती चाची की।

सारे दिन दुकान पर बैठी रामरती के खुले बालों में फागुन माह की धूल उड़-उड़ कर भर गयी है। उसने गर्दन घुमा कर देखा शाम ढ़लने को आई है। उदास हवाएं आगे बढ़ रही हैं और रामरती का मन पीछे की ओर पलटने को ललक रहा है।

उसने दुकान के छप्पर से हाथ निकाल कर बाल्टी में रखे पानी में से दो चुल्लू निकाल कर रुखे पर रहे चेहरे पर मार लिया। चेहरे पर पड़ी धूल धीरे धीरे पिघल कर बहने लगी।

इन्टर पास लम्बी ,गोरी , और भरे-भरे बदन वाली सीधी पाटी खींच कर चौड़े सिन्दूर से भरी मांग और माथे पर टह-टह लाल बिन्दी गजब की रूप वाली है 'रामरती '
और 'योगेश' तब मात्र मैट्रिक पास था। उसकी कलकत्ते में खिचड़ीफरोश की दुकान थी।
"४५ वर्षीय" योगेश जो एक पैर से लंगड़ा कर चलता था। ठीक बारात लगने की बेला में बचपन की सहेली ने कान में आकर फुसफुसा दिया था,
" मैंने देखा है रामरती छोरा लंगड़ाता है "
वह दुल्हन बनी बैठी थी तभी अम्मा सकपकाती सी पास आ कर झिरक दी थी ,
"क्यों री बाला तुझे क्या बिन बात के बात बना रही है ? छोरा लंगड़ा दिख गया। उसकी आमदनी ना दिखी ? "
"अब चुप रहो और जयमाल के लिए इसे तैयार करके ले चलो "
बीता हुआ समय कैसे सालों बाद भी आंखो से नहीं भूलता। रामरती यही बैठी-बैठी सोच रही थी और गैस पर चढ़ी चाय की हांडी उबल-उबल कर बाहर फेंक रही है।
कि युनिवर्सिटी से लौटते छात्र-छात्राओं के झुंड ने जोर से टेबल थपथपाई,
"कहाँ खोई हो रती आँटी चाय नहीं पिलाओगी क्या ? और जोर से हँसने लगी।
कहाँ अठारह बर्ष की रामरती योगेश ने सोच रखा था, "मुझसे सुख ना मिलेगा तब खुद ही मुझको छोड़ कर चली जाएगी "

रामरती के तेज के आगे वे स्वयं को मानसिक रूप से क्षतिग्रस्त पाते अब उसमें अब वह जोश और उत्साह नहीं बचा है।
पूरे ग्यारह महीने कलकत्ते में रहता और फागुन में एक माह को आते ।
इधर रामरती बनी-ठनी मुहल्ले भर की भौजाई बनी मचक -मचक कर चलती।

जब आम के पेड़ मंजरियों से भर जाते और गाँव की चौहद्दी उसकी मादक गंध से भर जाती तब चाचा के आवन की सोच चाची उल्लास से भर जाती उनकी साल भर की कुलबुलाती इच्छाऐं इस समय हल्के सुरूर के साथ बाहर आने लगती वे गुनगुनाती...
अमवा के मोजरा से रसवा चुअत
है आजा रे बैरिया बेला खिलत है
लाल-लाल होठवा पर कलियां
खिलत है ... आजा रे बैरिया...
खुशी और उल्लास से भरी उनकी रंगरलियों में करुणा की अदम्य लहर मिली रहती।
जो कि चाचा के ठूंठ पड़ गए मन को पुष्पित पल्लवित नहीं कर पाती ।
वह रिश्तों को मजबूत बनाने के लिए दिल को जितना ही नरम करती चाचा उतने ही कठोर होते जाते।

एक बार उन्होंने चाची को उघड़े मुंह गली में देख क्या लिया उनकी बुद्धि ही भ्रष्ट हो गई ।
दिन ही पलट गए वे तो अपने दिल की ही बात नहीं सुन पाते चाची की धड़कन क्या सुनते ?
इधर अपनी ही धुन में चाची इस सब से अन्जान उनकी मनमोहनी खुशबू अपने अंदर भर उनसे सरगोशियाँ करने को बेचैन ,
वे जितनी गुनगुनी होतीं काका उतने ही पत्थर दिल ।
चाची चंचल उन्मन चाचा विकृत ,अनमने और रूढ़ ।
फिर उस बार जो गए कलकत्ते तो दोबारा लौट कर नहीं आए ।
चाची ने भी हार नहीं मानी नुक्कड़ पर चाय की दुकान खोल अपने स्वभाव के अनुरूप ही चटपटे पकौड़े ,रंगीन मठरियां और बंगाली निमकी अपनी बातों के रस में डुबो कर हर आने वाले को परोसती और अब गुनगुनाती हैं
कान्हा रे खेल मत होरी मेरे घर
सास लड़ेगी ...
कान्हा रे छेड़ मत मोहे मेरे घर पी
लड़ेगें ...
वह जानती है जीवन का कोई भी सुख झूठ के मुखौटे लगाने से प्राप्त नहीं होता ।

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दादी की परी
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