कहानीप्रेम कहानियाँ
क्या सच में 'पल दो पल का प्यार' 'पल दो पल का' ही हो कर रह जाता है ?
न जाने कितनी सजीव प्रेमगाथाएं हमारे उस कॉलेज के विस्तृत परिसर में लिखी गयी थी।
"शीर्षक "
मासूम सवाल "
जिस ' मीठे झूठ ' वाली प्रेमकथा को फाइनल परीक्षा के पहले 'शिवानी' ने आधे अधूरे मन से अपनी हामी भर कर 'सत्यराज' की डूबती नैया को बचाने के लिए लिखी थी उसका जबाब मुझे आज नहीं मिल पाया।
वह स्वयं भी तो आजीवन उसकी मीठी फाँस में बंधी नहीं रह पाई।
तब 'मुम्बई ' मुम्बई नहीं हुआ करती थी।
बम्बई विश्वविद्यालय का वो पहला दिन। दर्शनशास्त्र से एम.ए में ऐडमिशन लिया था शिवानी ने जहाँ सहपाठी
सत्यराज न उसे सिर्फ़ नोट्स देता वरन् कई बार लाईब्रेरी से उसके लिए किताबें भी ढ़ूंढ़ कर ला देता। यदि उसने मदद ना की होती तो शिवानी कैसे कर पाती सब कुछ अकेले।
फिर इसी सबमें धीरे-धीरे किसी रहस्य की तरह खुला था वह।
किसी जंगली फूल की तरह उन दोनों की दोस्ती पनपती गयी थी।
सत्यराज सच में अनूठा अलबेला था जहाँ बाकी के लड़के सिर्फ फिल्मों और गीत शाएरी की बातें लड़कियों से करते ।
वहीं सत्य शिवानी से राजनीति , समय की चुनौतियों और बम्बई के स्लम बस्तियों की बाते करता। लेकिन फिर कैसे दोस्ती से बढ़कर उसने मजनुओं वाले रंग दिखाने शुरु कर दिए ।
लेकिन दकियानूसी परिवार की शिवानी बेचारी पूरी ईमानदारी से दोस्ती निभाए चली जा रही थी। शिवानी को पहली बार पता लगा जो सच में नजर आता है वह वैसा होता नहीं है।
सत्यराज उसके साथ दोस्ती से बढ़कर प्रेम की पथरीली राह पर चलने को तैयार था। शिवानी की कच्ची उम्र
यह सोच कर कि ,
"प्रेम करना हरेक का अधिकार है फिर एक सच यह भी कि सत्यराज को शिवानी से कोई उम्मीद नहीं थी वह यह भी जानता था कि ,
"इस रिश्ते को निभाना शिवानी के लिए कभी संभव नहीं होगा । फिरभी वह बस इतना जानना चाहता था कि ,
"शिवानी भी उससे प्यार करती है या नहीं? "
तब शिवानी ने सहपाठी सत्यराज की अपने लिए दीवानगी भरी आसक्ति को अपनी झूठी ,
"हाँ... हाँ... हाँ " से यह सोच कर संभाल दिया था कि
" एक दोस्त के डूबते कैरियर को बचाने की खातिर थोड़ा सा झूठ बोल देने में क्या जाता है ? "
ऐसा करके सत्यराज को तो उसने अंतहीन वीराने में भटकने से बचा लिया था।
पर खुद उसके लिए ?
वे फूंक-फूंक कर संभल-संभल कर चलने वाले यातनाओं भरे दिन साबित हुए थे...
कॉलेज में सत्यराज शिवानी का 'कवच-कुंडल 'बना आगे पीछे घूमता रहता।
सत्यराज किताबों की दुनिया में डूबने की बजाए मीठे-मीठे सपनों में डूबा शिवानी के प्रेम की झील में दीवानों की तरह तैरा करता।
शिवानी शुद्ध दकियानूसी छाप वाले आभिजात्य बंगाली परिवार से थी।
जबकि सत्या के खुले विचार हर वक्त झूम-झूम कर उत्सव की तरह सजते।
बहुत फासला था उन दोनों के बीच पनपने वाले पल दो पल के होने वाले प्यार और 'निभाने ' में।
फाइनल परीक्षा के रिजल्ट आ चुके थे।
सत्यराज ने अव्वल नम्बरों से पास कर चुका था नम्बर तो शिवानी के भी अच्छे आए थे ।
सत्यराज की किसी बड़ी सी मल्टीनेशनल कम्पनी में नौकरी लग गयी थी और तब बड़े बेमन से उसने शिवानी से दूर जाना स्वीकार कर लिया था।
समय फिर अनवरत नदी की तरह बहता गया। शिवानी भी अपनी निजी जिंदगी के बंदोबस्त में जुट गयी थी।
इस बीच कितने आए गये बसंत की तरह शिवानी और सत्या के जीवन में भी कितना कुछ छूटा और जुड़ा ।
और अब आज... फिर से उसी वसंत के गदराये मौसम में,
"हैलो... हैलो ... शिवा सुन रही हो " सुन कर शिवानी का दिल धड़का वह हक्का बक्का रह गई।
उधर गर्मजोशी भरी उसकी आवाज
"बहुत मुश्किल से तुम्हारा फोन नम्बर ढ़ूंढ़ कर निकाला है यार... प्रकाशक के यहाँ से मिला है " चहक रही है ,
"सुना है बहुत बड़ी लेखिका बन गई हो। हाँ भई अब हम क्यों याद रहेगें ? "
अतीत की राख के नीचे दबी चिन्गारी सुलग उठी उधर वह अनवरत बोले चला जा रहा था,
"वो तो नवम् क्लास के मेरे बेटे की पाठ्यक्रम में छपी तुम्हारी कविता से हमें पता चला "
हो-हो-हो कर हँस दिया... वो।
" क्या खूब लिखती हो शिवा " उस आवाज में पल दो पल वाले प्यार की परछाईं कंही भी नहीं थी। मनका-मनका टूट कर बिखर गया सा।
फिर जारी रहे उसके सवाल दर सवाल ! के उत्तर में हूँ -हाँ।
उकता कर फोन रख दिया शिवानी ने ...
फिर तो शिवानी के मुँह का जाएका ऐसा बिगड़ा कि गर्म चाय के साथ अपनी सबसे प्रिय लेखनी उठाने पर भी नहीं सुधरा।
मौका था कह सकती थी ,
"हाँ तो क्या आगे बढ़ जाने का ढ़ोल पीटती ? "
,पर न जाने ऐसी कौन सी भावना थी जिसने उसे ऐसा करने से रोक दिया।
"क्या फाएदा बुझी आग को फिर से उकेरने की खासकर तब जब खुद का जीवन भी जिंदगी की रेलमपेल में आगे निकल गया है।
" पँहुच से दूर हो गया हो "।
अब आप सब बताएं उसने सही किया या गलत ?
सीमा वर्मा /नोएडा