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" अपराधिनी " 🍁🍁 - सीमा वर्मा (Sahitya Arpan)

कहानीसामाजिक

" अपराधिनी " 🍁🍁

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#शीर्षक
"अपराधिनी " 🍁🍁
अंक ... तीन समापन भाग...
कमरे में अचानक चुप्पी छा गयी। सगुण की आंखें अपनी उन चंद दिनों की सपनीली प्रेमगाथा की तलाश में दूर... विचरण करने लगी है...।
ओहृ... कैसे अनमोल चांदी से दिन और सोने की रातें...
जानती है तू ?
ऐसा नहीं है कि मुझे लोग मिले नहीं या ऐसा मौका नहीं मिला या फिर ... भूल मुझसे हुई नहीं हो... ?
लेकिन मैं आज तक बस यही तो नहीं जान सकी हूँ ,
"कि महाखुशी के वो खूबसूरत दिन !
मेरी 'गलतियां' थीं या ईश्वर द्वारा प्रदत्त 'नेमते' ... "
शुरु के दिनों में माँ और बाबा के बीच कैसे तो अजीब से हाव-भाव भरे व्यवहार देखती हुयी पली बढ़ी थी।
फिर बाद में धीरे-धीरे उसकी धार कम होते भी देखी।
खैर ... तुझे इससे क्या ?
ये वो दिन थे जब 'राखाल बनर्जी' मेरे जीवन का प्रथम पुरुष कलकत्ते में काम करता। और जब कभी आता भी तो अपने पूर्व की अत्यधिक दुर्व्यसनी कारगुजारियों के फल भोगता हुआ मेरा सामना करने में पूर्ण रूप से अक्षम साबित हो कर और भी खूंखार हो इसका बदला मुझपर अमानवीय अत्याचार करके लेता।
इतना मारता, इतना मारता कि जब तक मार कर थक हार कर हाँफ नहीं जाता। मैं मांस के लोथड़े में तब्दील हो जाती। उस भंयकर वक्त में कभी दरवाजे की झिर्रियों पर परछाईं सी हिलती-डुलती दिख जाती ...
सुबह दीदीमनी ही चुपचाप आंसू बहाती हुयी चोटों पर हल्दी चूने के लेप चढ़ाती।
बाद में तो राखाल ने घर आना बिल्कुल नहीं के बराबर कर दिया।
१४ वर्ष की मेरी कच्ची उम्र... ।
घर में बचती मैं और एक उसकी बहन जो विधवा थी 'दीदीमनी ' वे दिनरात पूजा अर्चना में डूबी रहती। सुबह के वक्त नियमित रूप से नहा धोकर फूल और मिश्री ले कर बाबा की फोटो के सामने जो बैठ जाती तो दिन ढ़ले ही उठती। सर के केश मुंडाए, बिना ब्लाउज के झक सफेद मलमल वस्त्रधारी गले में कंठी माला यही उनकी वेषभूषा थी।
अल्पभाषी, एक वक्त ही स्वयं निर्मित भोजन ग्रहण करतीं।
फिर उतने बड़े से घर में मैं इधर-उधर भटकती मार खाती हुयी भी पति के कलकत्ते के लिए निकलते उस निर्दयी के ही आने का इंतजार करने लगती।
कभी-कभी वो महीनों लगा देता वापस लौटने में ।
" तभी किसी कमजोर क्षण में विवाहित नवयुवक पड़ोसी 'रामखेलावन' के साथ दिल लगा बैठी "
कितना गंवरू... और मस्तमौला छवि वाला जवान था।
अक्सर किसी फिल्मी गाने की धुन पर सीटी बजाता गली से गुजरता जिसे सुन कर ही जी धक से धड़क जाया करता था मेरा।
और मैं भागी-भागी दोतल्ले की छत पर चढ़ जाती।
कभी जेठ की धूँ-धूँ करती दोपहरिया में सूरजमुखी के फूल सी पीली लपट उठती तन-मन में और वो ... ?
उसकी आंख में आग की कैसी मीठी- मीठी लपट सी उठती रहती।
तो मुझे उतरते सावन की रिमझिम में अपनी जवानी सम पर आने से पहले ही पटरी से उतर गयी लगती।
"पति दूर ...लिहाजा प्रेम... धीरे-धीरे तीव्र गति से परवान चढ़ता गया... ,
"चलो हम-तुम कंही और भाग चलें "
"कहाँ वो देख लेगें और तुमरी बीबी ?"
" वो भी रहेगी तुम्भी रहना "
"हुँह ! खुद तो मारे-मारे फिरोगे और हमें भी...।
सारा-सारा दिन दीदीमनी अपनी पूजा और हम अपनी देहगाथा में उलझे रहते।
पर कहते हैं ना इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते।
धीरे-धीरे मेरे किस्से भी घर की दीवार से निकल कर गली-मुहल्ले से होती हुयी राखाल तक जा पंहुची...।
फिर उसके बाद ...
" एक दिन 'खेलावन' की पत्नी अचानक रहस्यमयी परिस्थितियों में चल बसी। "
" हंसा, क्या और कैसे हुआ मुझे कुछ भी पता नहीं ?
"लेकिन परिणाम स्वरूप!
'आजीवन कारावास' भुगतने को मजबूर हुई मैं "
यह तो बाद में सुनने को आया खेलावन की बीबी ने उसे बुलाया था।
उस रात अचानक कंही से दुर्दैव की तरह राखाल बनर्जी आया था और आम दिनों की तरह घर पर नहीं आ सीधा रामखेलावन के घर गया जहाँ उनदोनों की खूब गहरी छनी थी... रातभर।
मैं बिल्कुल अंजान थी इस सबसे...
" उफ्फ दीदीमाँ ... कराह उठी हंसा "
"पगली! अब तो यही जिनगी हो गई तू क्यों सोग मनाये ?"
"पति ने बुरी औरत जान सिरे से नकार दिया,
हाँ घर से निकलते वक्त दीदीमनी की आंख में एक जलती बुझती बिजली की रोशनी सी कौंध और कंधे पर उनका वह हिम से भी शीतल स्पर्श...।
ओ हंसा जिसकी अनुभूति आज भी मानसपटल पर ज्यों की त्यों है "।
उसके बाद से उन्हें फिर कभी देखा नहीं।
राखाल उनका एकमात्र भाई जिसकी तमाम दुष्वारियों की मूक दर्शक बनी चुप रह कर होठों पर ताला लगाए रहतीं।
न जाने किस बात से डरतीं।
लेकिन थीं तो एक 'स्त्री' ही खैर...
वे कभी आईं नही मुझसे मिलने।
और सच बताऊं ! अच्छा ही हुआ नहीं आईं।
वे आ भी जातीं तो क्या उनसे नजर मिला पाती मैं ? "
हाँ शुरु में खेलावन ही जरूर प्रतिमास... आता फिर दोमासा... उसके बाद चौमासा... कहता " ,
"चिंता मत कर जमानत पर छुड़ा कर ले जाउंगा"।
" तब... उसके इस झूठे दिलासे... पर पूरे हफ्ते इतराती... फिरती मैं !
लेकिन धीरे-धीरे 'आस निराश' में बदलती गई।
एक पर एक पूरे ग्यारह... बर्ष निकल गये अब तो कुछ दिन ही बचे हैं "
"उसे नहीं आना था... नहीं आया... "
मैं भी लाचार
मेरे जीने का कोई सबब भी तो नहीं बचा था री "
" बंद दरवाजे से रिहाई की सोच कर ही घबरा जाती हूँ,
" निकल कर जाउंगी ... कहाँ ? कोई ठौर भी तो नहीं बची ? "
" ओहृ दीदी माँ मैं तो हूँ आपके पास ' तुम्हारे जाने की सोच मैं भी कितना... " आगे बोल नहीं पाई हंसा उसका गला रुंध गया था। चुपचाप सगुण के पास सरक आई है।

कितना चाहा था मेरी रिहाई का दिन टल जाए। पर जब आज तक मेरा चाहा हुआ कुछ नहीं हुआ है त़ो इसबार कैसे होता ?
आज सोमवार है और आज ही मेरी रिहाई है।
मन कितना तो खराब हो रहा है ?
हंसा तो बिल्कुल खामोश ह़ो गयी है। इसकी खोटी तकदीर जब यहाँ आई थी तो इसे अपना नाम भी नहीं मालूम था। कुछ बोल ही नहीं पाती थी। एक सिपाही ने ही दस्तखत की जगह अंगूठा पकड़ कर इससे ठप्पा लगवा दिया था।
बस यहीं तक। इससे आगे कभी कुछ बताने लायक उसके पास था ही नहीं।
खैर...
मेरे दिल-दिमाग में सन्नाटा पसरा हुआ है।
तय कर लिया था निकलते समय रोऊँगी नहीं।
लेकिन जैसे ही हंसा के पास गयी उसने लपक कर मेरे हाथ पकड़ लिए। उसकी आंखो से आंसुओं की बूंद ढ़लक रही थी।
मेरे भी आंखों में आंसू झलमला गये। नहीं रोने की कसम तो कब की टूट गई थी।
कैसी मजबूरी है चाह कर भी उसे अपने साथ नहीं ले जा पा रही हूँ। मैं खुद ही कहाँ जाना चाह रही हूँ पर मुझे जबरन जाना पड़ रहा है।

अभी कुछ ही दिन हुए मैं घर लौटी हूँ , 'घर' इसी को कहते हैं ?
करमतल्ला का यह दोतल्ला मकान। अपने आप में राखाल बनर्जी की यादों का जखीरा समेटे हुए । इन दिनों मेरा दिमाग कुछ कम काम करता है।
लगता ही नहीं है कि मैं जिंदा हूँ। जेल में ही जिंदा कहाँ रह पाती। जहाँ अगर हंसा मुझे ना मिली होती?।
एक बात जो मुझे बराबर मुझे खलती है। कि मैं ने उस जुर्म की सजा पाई है जो कभी किया ही नहीं।
लेकिन जिसका पछतावा भी मुझे कभी नहीं हुआ । अगर खेलावन की पत्नी जिंदा भी रहती तो उस चतुष्कोणीय प्रेमकहानी में किसी की जान तो जानी ही थी खैर।
जेल से लौट कर आने के बाद सोचती हूँ कम से कम हंसा, जिसका मेरे सिवा इस भरेपूरे संसार में और कोई नहीं है उसका क्या होगा?।
अगर वह मेरे बिना नहीं रह सकती तो मैं ही कहाँ रह पाऊंगी ?
दो दिन पहले उससे मिलने गयी थी ,
" दुबली तो वह पहले से थी अब और भी सूख कर काँटा हो गई है "
इधर इस घर में दीदीमनी मन से बिल्कुल निस्तेज और निर्मम हो गई हैं एक तो पहले ही कम बोलती थी अब और भी।
कभी किसी बात का प्रभाव ही उनपर नहीं पड़ता है बिल्कुल भावहीन।
कभीकभी हमारे लिए समय भी कितना निर्मोही खलनायक जैसा हो जाता है। खैर... मैं जानती हूँ सिवाए माँ को छोड़ अगर किसी ने मेरे बारे में सोचा है।
तो वो मेरी नानी ने।
एक दिन योंही बैठी हुई मैं अपनी विदाई के वक्त नानी के द्वारा दिए गये पिटारे को खोल कर बैठी थी।
तो उसमें से नानी के दिए सोने के बूंदे, गले के हार, कर्णफूल और हाथों के मणिचूड़े पर नजर गयी। अचानक से नजर के सामने हंसा का चेहरा उभर आया।
वो इन सबको पहनेगी तो कितना शोभायमान हो जाएगा पूरा माहौल।
उस बेचारी ने तो इतनी बड़ी दुनिया में मुझ जितना भी नहीं पाया है। उसकी जागती -सोती आंखों ने कभी ख्वाब देखे ही नहीं हैं।
सड़क पर पैदा हुयी अनाथालय में आंख खुली और सुधार गृह में कतल कर सीधे जा पंहुची कारागृह में उफ् ... ये कैसी जिन्दगी ?
जिसकी कल्पना मात्र से रोंगटे सिहर जाए।
हमारे तथाकथित सभ्रान्त भालोमानुष वाला दुर्नीतिग्रस्त समाज ने उसे दिया क्या है ? मात्र लांक्षण और ' अपराधिनी ' की संज्ञा को छोड़ कर।
अभी हंसा को बाहर निकलने में पूरे सात महीने दो दिन बाकी हैं। निकल कर इस निर्दयी कठोर समाज में वह जाएगी कहाँ ?
क्या हमारा समाज और परिवेश उस नादान सी अपराधिनी को खुलेदिल से स्वीकार कर पाएगा ?
क्या वह बड़ी बेशर्मी से फिर से उसी दलदल में नहीं घसीट ली जाएगी ? मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा है लेकिन इतना अवश्य तय है मैं ऐसा नहीं होने दे सकती ।
इस परिस्थिति में उसके रहने की व्ववस्था मुझे ही करनी होगी।
वैसे यह भी सोचने वाली बात है। आगे क्या करूंगी? जेल से निकलते वक्त पारिश्रमिक के रूप में मिले पैसे मैंने बचा कर रखे हैं। चौदह बर्षों के हिसाब से कुल जमा , 'दस हजार चौरासी रुपये' ।
लगभग इतने ही हंसा के भी होगें तो दोनों को जोड़ कर करीब बीस हजार रुपयों से कोई अच्छा-खासा रोजगार खड़ा किया जा सकता है। रहने के लिए घर मकान तो है ही।
क्यों ना यहाँ से कहीं दूर जा कर कलकत्ते साड़ियाँ लाकर व्यापार किया जाए?
अगर कंही ठीक- ठिकाने से सब हो पाया तो , दीदीमनी को भी तैयार करना होगा। यों तो वह इस संसार से विरक्त हो गयीं सी दिखती हैं... पर हंसा ?
हाँ शायद हंसा ! की हंसी-खुशी उनमें फिर से सोए हुए सहज भाव जगा जाए।
कितनी प्यारी सी है हंसा। कौन सी स्त्री इस संसार में होगी जो उसे देख कर न जग जाएगी।
अब सब कुछ ईश्वर पर छोड़ रही हूँ। जमाने भर की सताई हुओं हम जैसियों के लिए भी तो वही एक कर्णधार है।
आप सबों के शुभाकांक्षाओं के लिए भी प्रार्थना करती हूँ। आशीर्वाद बनाए रखेगें ताकि हंसा का जीवन बचा पाऊं।

स्वलिखित /सीमा वर्मा
नोएडा ©®

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दादी की परी
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