कविताअन्य
कोई अभिलाषा नहीं,
कि जग में जाना जाऊँ,
नाम नहीं सुनना अपना,
कर्तव्य पथ पर बढ़ता जाऊँ।
दुखियों की मैं सेवा करूँ,
अनाथों को अपनाऊँ।
वीरों के पथ के रज कण,
माथे पर चन्दन सा मैं सजाऊँ।
जठराग्नि शान्त हो सबकी,
बुभुक्षा को मिटाऊँ।
मानव धर्म परिशुद्ध ह्रदय से,
जग में मैं निभा पाऊँ।
देना साहस इतना मुझको,
सृष्टि का संताप मैं हर पाऊँ।
अभिलाषाओं का सागर गहरा है,
कहीं डूब न जाऊँ।
आकाशदीप बनकर मैं,
सबको राह सुझाऊँ।
भारत माँ और माँ का दग्ध ह्रदय मैं,
चाँद सा शीतल कर पाऊँ।
देना मुझको निश्छल ह्रदय तुम,
घात न मैं कर पाऊँ।
गंगाजल सा निर्मल करना मन,
द्रोह न मैं कर पाऊँ।
भारत माँ की रक्षा हेतु,
शीश मैं कटा जाऊँ।
खग ,मृग,जन सबको,
शांति का संदेश पहुँचाऊँ।
“शिंजनी” की अभिंलाषा इतनी है कान्हा,
प्रत्येक शुभ कर्मों में साथ तुम्हारा पाऊँ।
क्षितिज के पार का दर्शन कर,
विमुग्ध मैं हो जाऊँ।
मीरा शिंजनी