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"अपराधिनी " - सीमा वर्मा (Sahitya Arpan)

कहानीसामाजिक

"अपराधिनी "

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नमस्कार मंच 🙏
प्रस्तुत लंबी कहानी
#शीर्षक
"अपराधिनी " 🍁🍁
की नयिका 'सगुण ' कारागृह में रहने वाली चरित्र है।
लेकिन है तो इसी समाज का अंग अथवा उसका वीभत्स रूप कह लें।
अब और ज्यादा विस्तार में न जा कर मैं कहानी आरंभ करने की आज्ञा चाहती हूँ🙏🙏

अंक ... 1
"कहते हैं कारागृह स्त्रियों की ढेर सारी दमित इच्छाओं के लिए 'शमशान घाट' तुल्य होता है"
"क्या सच में " ? अब चाहे जो भी हो मैं यहाँ 'सगुण घोषाल' की बात कर रही हूँ।
कारागृह में हर दिन कमोबेश एक सा ही उदास, परेशान और पगलाया सा ही रहता है।
उस विशाल कारागृह के सेल नम्बर
'एक सौआठ' में जामताड़ा की 'सगुण घोषाल' भी हर वक्त उदास,परेशान, पगलाई और बेचैन सी लंबे बैरक के दोनों ओर लगे बिस्तर के बीच में जो खाली, लंबी पतली सी जगह है उसी में 'दिन -रात' चलती रहती है।
हाँ ! कभीकभार बीच में बैठी सूनी आंखों से बंद दरवाजे के उस पार न जाने क्या देखने के प्रयास कर बुदबुदाती भी रहती है।
आज भी सगुण वंही पर बैठी हुई सिर के उलझे बाल सुलझाने के प्रयास कर रही है। जब हंसा थोड़ा रुक कर थथमती हुयी बोल पड़ी
" दीदीमाँ क्या सोच रही हो, मुझे तो बहुत डर लग रहा है ? "
अचानक चिंहुक गई सगुण ...
श्याम वर्णा हंसा साधारण नैन-नक्श वाली औसत कद की दुबली-पतली लड़की है।
जिसके सामान्य से चेहरे पर भाव तो ढ़ेर सारे रहते हैं। वो मुँह से चाहे कुछ भी ना बोले पर उसके विभिन्न भाव से भरी आंखें परोक्ष तौर पर बहुत कुछ बोल जाती हैं।
पर वह स्वयं चुप ही रहती है। चुपचाप खाना ,चुपचाप सोना, चुपचाप नहाना और कपड़े धोना बस किसी से ना बातचीत ना ही जवाब-सवाल खैर... अन्य सभी भी सगुण के साथ ही उसका सम्मान करते हैं।
बहरहाल... इस वक्त सगुण उसे डरी हुई देख कर...
"कुछ नहीं... कुछ भी तो नहीं ... घबड़ा मत तुझे भी आदत हो जाएगी इस सबकी " ,
" यहाँ तो तू फिर भी बची हुई है " कह कर डरी हुयी हंसा को अपने अंक में समेट ... लिया है।
"मैं भी तुझ जैसी ही ...जब यहाँ आई थी,
अब तो वह...भी मुझे भुला बैठा है ,
जिसकी खातिर पति से दूर इस कारागृह में पड़ी हूँ "।
"क्या हुआ था दीदीमाँ ?
"अपने बारे में कुछ बताओ ना दीदीमाँ "
कितनी बार सगुण के गहरे एकाकीपन को कुरेदती है हंसा!
"हमको कुछ भी याद नहीं है "
"तुम सब कुछ भूल गयी ?
इस सवाल का जवाब नहीं दिया सगुण ने सिर्फ अपनी उंगलियों की पोरों को गिनती रही।
" क्या गिनती हो दीदीमाँ किस बात का हिसाब किताब कर रही हो ?"
"तुम नहीं समझोगी हंसा"
अब सगुण को बोलना ही पड़ा " तुम्हारा बचपन तो ... कहती चुप हो गई।
कहते हैं हंसा को यहाँ कोई अनाथ आश्रम वाले ले आए थे उसके माँ-बाप का कोई पता नहीं।
अगले ही पल सगुण के चेहरे पर एक अजीब सी मुस्कान छा गई। उसने हंसा को परे कर ,
" तुम यह सब जानकर क्या करोगी अभी तो तुम्हें न जाने कितने दिन रहना है "?
हंसा के प्रश्नों के क्या जवाब दे सगुण मीठी यादें तो कुछ खास हैं नहीं सिवाय इसके कि ,
" उसकी भी एक सन जैसे सफेद बालों वाली नानी थी।
जो घर के नजदीक ही बने नहर के उस पार रहा करती थी...जो उसे गाना सुनाया करती,
"मुँह में एक भी दाँत नहीं थे उसके लेकिन अपनी नातिन के साथ मिल घेरा बना कर नाचा करती थी।
मेले से सुग्गी के लिए साड़ी, चूड़ी और कान के बूंदें खरीद देती और,
"हाँ यह भी कि भूख लगने पर सत्तु के लड्डू बना कर खिलाया करती "
जब जामताड़ा की सगुण घोषाल नयी-नयी आई थी बेहद खूबसूरत थी। इस खूबसूरती का गुमान भी उसे बहुत था एवं उसने खतरे भी इसी वजह से उठाए थे।
वह हर समय अपनी उंगलियों की पोरों पर कुछ गिनती करती रहती।
चौदह बरस की कच्ची कली सी 'सगुण' और सैंतालीस बर्ष के 'राखाल बनर्जी'।

सगुण अपनी माँ की एकमात्र बिटिया 'सुग्गी' को याद है। दोपहर में जब काम से सुस्साती हुई माँ पड़ोस की काकी से कहती,
" मैं इसे कंही छिपा दूंगी ,
"क्योंकि बाप ! इसका बाप ठहरा राच्छस वह इसे हजम कर जाएगा। मैं तो इसकी तीसरी बीबी हूँ। हालांकि इसने कुछ दान-दहेज नहीं लिया लेकिन एक के बाद एक उनका सब हड़प कर उन्हें बदचलन करार दे कर घर से निकाल दिया।
मैंने तो आते ही इसके लच्छन पहचान लिए थे लेकिन फिर भी अब औरत की जात ठहरी ... होठ से पान के रस चुआते जब मुए ने कहा ,
" अरे नहीं रंगीली बीबी बिना घर जैसे नमक बिन सब्जी "
कह कर हाथ में तुलसी दल ले कर कसम खाई थी हरामी ने ।
और सच में बदल भी रहा था कहता , बहुत कर लिया अब और कोई पाप नहीं करना।
सगुण को याद करती है।
क्या सच में बदल गया था बाबा ?
सगुण ने हंसा की ओर देखा. हंसा ने आंख बंद कर कर रखी है,
" हंसा... रे हंसा... नींद आ रही है " सिहर गयी थी हंसा।
"नहीं दीदीमाँ मैं कल्पना में जी रही हूँ" तुम सुनाती जाओ...
"हाँ पुराने घाव फिर उभर गये हैं... "
शुरुआत के कुछ साल तो जैसे सपने वाली जिन्दगी थी पर फिर धीरेधीरे बाबा की नजर बदलने लगी रोज शराब पीने की पुरानी आदत इस बार और भी खतरनाक हो कर उभरी थी।
माँ काकी से कहती ,
" मैं भी कितनी पागल थी। उस पापी की बात पर विश्वास करना कितना कष्टदायक साबित हुआ।
" मेरी सुग्गी कितनी खिली-खिली और खुशदिल और इस पापी की नजर ... कल चौक पर के कल्लन मियां को साथ ले कर घर में चला आया ... उफ्फ तौबा... कर सखी तौबा...!!
इसने तो मुझे आग में झोंक दिया है "
सुन कर काकी भी अपने दोनों हांथों से कान पकड़ती... उफ्फ तौबा... कर उफ्फ तौबा...।
सुनती हुयी हंसा सिसक पड़ी थी ,
"फिर क्या हुआ था दीदीमाँ ?"
"फिर ... फिर मेरी माँ मुझे बचाने के लिए कुछ और ही तरह की इन्सान बन गयी थी "
मैं जिंदा रहूँ, सलामत रहूं इस खातिर वह तिल-तिल जल कर खुद कमा-कमा कर उस पापी की लत के परवान चढ़ती रही।
"... एक रात जब बाबा नशे में धुत्त आंगन में पड़ा हुआ था।
माँ मेरा हाथ पकड़ सीधी नानी घर पंहुच गयी और बेबसी से भरी हुई रोती परंतु दृढ़ आवाज में बोल रही थी...।
क्रमशः

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दादी की परी
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