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जाड़े की रात - Kumar Sandeep (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविताअन्य

जाड़े की रात

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जाड़े की रात में
जब ठंड से ठिठुरते हुए सोता है
एक गरीब
ख़ुले आसमान के नीचे
तब आसमान भी,
बहाता है अपनी आँखों से अश्रु।।

जाड़े की रात में
जब ठंड से कँपकँपाते हुए
लौटता है एक निर्धन
अपने घर के द्वार पर,
उस वक्त न केवल उसकी आँखें
बल्कि उसका मन भी
रोना चाहता है जी भर।।

जाड़े की रात में
जब त्याग की मूरत पिता
ठंड से कांपते हुए घर पहुंचते हैं
और, अपने बच्चों के चेहरों पर
मुस्कुराहट देखते ही,
उनके तन-मन में महसूस
होने लगती है गर्माहट,
उमड़ने लगती है उनके मन में
ख़ुशी, उमंग।।

जाड़े की रात में भी
माँ काम करना नहीं छोड़ती है।
बनाती है ख़ाना,
बांधती है मफलर बेटे के कान पर,
माँ ख़ुद कांपती है ठंड से
पर, संतान के चेहरे पर
हर्ष देख, भूल जाती है
ठंड की ठिठुरन।।

जाड़े की रात में भी,
जिनके ऊपर रहती है
घर की ज़िम्मेदारी
वे भूल जाते हैं अपना हर ग़म
और कँपकँपाती रात्रि में भी
करते हैं अथक श्रम
बिना थके ।।

जाड़े की रात में
जब बेजुबान जानवर
भूख और ठंड से
होता है व्याकुल
तो हमें रख देनी चाहिए दो रोटी
उसके समक्ष,
ताकि मिटा सके अपनी भूख,
एक कंबल ही सही
रख देना चाहिए उसके तन पर
ताकि उसे भी महसूस हो गर्माहट।।

जाड़े की रात में
मिले जब भी कोई बेसहारा
ठंड से काँपते हुए, सड़क पर
उस वक्त, एक गर्म कपड़ा ही सही
हमें अवश्य देना चाहिए उसे,
ताकि बच सके उसकी भी जान।।

जाड़े की रात में
जब ठंड से ठिठुरता दिखे
कोई अनजान शख्स आसपास
उस वक्त हमें करना चाहिए
उसकी मदद
भर देनी चाहिए उसकी झोली
ख़ुशियों के चंद आसमान देकर।।

जाड़े की रात में
घर में डाइनिंग टेबल पर
स्वादिष्ट व्यंजन ग्रहण करते वक्त
सोचना चाहिए हमें उनके बारे में भी
सहते ठंड की असहनीय मार
दो जून की रोटी के लिए।
सोचना चाहिए हमें उनके बारे में भी
जो परिवार की ख़ुशी के लिए
दे देते हैं अपनी ख़ुशियों की आहुति।।

©कुमार संदीप
मौलिक, स्वरचित

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