कविताअन्य
साँप पहलू में है,तुम जानते नहीं,
मैंने झाँका है ,तुम झाँकते नहीं।
बड़े-बड़े ख़्वाबों में मशगूल हो सब,
फण विषधर का क्यूँ पहचानते नहीं।
अपने-अपने स्वार्थों में इतना मसरूफ है हम,
पन्नग की चाल देख पाते नहीं।
परमात्मा पर छोड़ कर बच सकते नहीं,
विष अहि का क्यूँ निचोड़ते नहीं।
साँप बिल में नहीं रहते है अब,
ऊँची कुर्सियों को क्यूँ निहारते नहीं।
हाथ में ज़हर बुझी तलवार लेकर,
दोमुँहे साँप बिलबिलाने लगे।
सपेरा बनने की क़ाबिलियत है तुममें,
ज़हर निकालने का हुनर क्यूँ सीखते नहीं।
सुबह शाम ज़हर उगलते है ज़ुबान से,
बाज बनके क्यूँ इनकी ज़ुबान काटते नहीं।
इन्सान में कुंठा,घृणा,नफ़रत का ज़हर देखकर,
साँप भी बिल में जाने से डरने लगे।
मुस्कुराते चेहरों के पीछे झाँककर देखो,
दिल के काले नाग बिलबिलाते नज़र आते है।
आस्तीन में साँप पालने का शौक़ है जिनको,
बार-बार अपने गिरेबान में झाँक कर घबराने लगे।
साँपों की प्रजातियाँ है बहुत ,
सोच कर समझ पाते क्यूँ नहीं।
कोई नाग नाथ कोई साँपनाथ,
फ़ितरत इनकी पहचानते क्यूँ नहीं।
“शिंजनी” तू नागों की मुस्कराहट पर यक़ीं न कर,
यह छुप कर डँसने को रहने लगे तैयार है।
मीरा शिंजनी