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( कार्तिक पूर्णिमा और गंगास्नान की हार्दिक शुभकामनाएं.
आज हम सब मिलकर करते हैं एक ज्ञान-यात्रा "गंगावतरण" की और बनते हैं साक्षी इसके मूल से परमगंतव्य तक एक-एक मोड़ और हर एक उतार-चढा़व की )
ब्रह्मा के मानसपुत्र दक्ष के साठ हजार पुत्र थे. एक बार नारद जी दक्ष के घर पधारे तो दक्ष ने निवेदन किया, " भैया, आप इन सब अबोध पुत्रों को कुछ ज्ञान दें और नारद जी ने अपने स्वभाव के अनुसार वैराग्य-भाव द्वारा उनको सांसारिक जीवन से विरक्त कर दिया और वे सन्यास-मार्ग पर अग्रसर हो गये. इस बात पर क्रुद्ध होकर दक्ष ने नारदजी को एक स्थान पर अधिक समय तक नहीं रूक पाने का शाप दिया और अपने पुत्रों को मृत्युलोक में जाने का शाप दिया. नारद जी तो शाप को वरदान समझकर "नारायण-नारायण" जपते हुए अपनी यात्रा पर चल पडे़. पुत्रों द्वारा क्षमायाचना करने पर दक्ष ने शाप में संशोधन करके शीघ्र मुक्ति का अभयदान भी दे दिया. ये सभी पुत्र महाराज सगर के पुत्रों के रूप में जन्म लेकर धरती पर आये.
सगर राम के पूर्वज थे. इनकी दो रानियाँ थी, सुमति और केशिनी. दोनों बहुत रूपगर्विता थी. केशिनी को असमंजस नामक पुत्र हुआ जो बहुत अहंकारी था. उसका पुत्र अंशुमान बहुत संस्कारी था. सुमति के गर्भ से एक तुंबी उत्पन्न हुई जिसके साठ हजार बीजों द्वारा साठ हजार पुत्रों का जन्म हुआ . ये भी बहुत उद्दंड थे.
एक बार सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया. इंद्र ने इसे अपनी सत्ता पर आया संकट मानकर इसे रोकने के लिए यज्ञ के अश्व को चुराकर उसे भगवान कपिल के आश्रम में छिपा दिया. मुनि तप में संलग्न होने के कारण इससे अनभिज्ञ रहे. सगर के पुत्र घोडे़ को खोजते हुए वहाँ पहुँचकर घोडे़ को वहाँ पाकर कपिल मुनि को अपमानित करने लगे. कपिल मुनि ने क्रुद्ध होकर उन्हें भस्म कर दिया. तब सगर के पौत्र अंशुमान ने आकर मुनि से क्षमायाचना करके अपने चाचाओं को को पुनर्जीवित करने की प्रार्थना की. मुनि ने कहा, " यह तो असंभव है. हाँ, यदि गंगा को पृथ्वी पर अवतरित करके उसके जल में इनकी भस्म को प्रवाहित किया जाये तो इनकी मुक्ति संभव है. इस प्रकार नारद जी द्वारा लिखी भूमिका पर एक जनकल्याण हेतु नवसृजन की एक प्रेरक टिप्पणी देकर भगवान कपिल पुनः तपोलीन हो गये.
अब जानते हैं कि गंगा का मूल. जब भगवान ने वामनरूप धरकर बलि के यज्ञ में दानस्वरुप मिली तीन पग भूमि को नापते हुए अपना दूसरा पग ब्रह्मलोक में रखा तो ब्रह्मा ने उनका पदप्रक्षालन किया और नारायण के उस चरणामृत को अपने कमंडल में भर लिया और गंगा सुदीर्घ काल तक
वहीं विश्राम करती रही.
सगर के पुत्रों की मुक्ति के लिए गंगावतरण हेतु उनके अनेक वंशजों ने कठिन तप किया किंतु असफल रहे. अंत में भगीरथ ने अटल संकल्प करके ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया. ब्रह्मा जी बोले, " मैं गंगा को धरती पर भेज दूँगा मगर उसका वेग इतना प्रचंड होगा कि वह धरती में छेद करके पाताल चली जायेगी. अतः आप शिवजी को प्रसन्न करो. वे ही गंगा को नियंत्रित कर सकते हैं. "
अब भगीरथ शिव को प्रसन्न करने में जुट गये. आशुतोष भोले बाबा सहमत हो गये. ब्रह्मा जी ने कमंडल को झुकाकर गंगा को मुक्त कर दिया और जटाधर शिव ने उसे अपनी जटाओं में बाँध लिया. गंगा शिव की जटाओं की पगडंडियों में उलझकर रह गई और भगीरथ खाली हाथ मलते रह गये. फिर उनकी विनती सुनकर आशुतोष गंगाधर ने एक जटा उखाड़कर गंगा को एक सतत् धारा बनाकर भगीरथ का अनुसरण करने का आदेश दिया. इस प्रकार गंगा भगीरथ की भागीरथी बनकर वसुधा को धन्य करने लगी.
भगीरथ की एक परीक्षा अभी और शेष थी. मार्ग में समाधिस्थ जह्नु ऋषि के आश्रम को गंगा का अबाध प्रवाह अपने साथ बहाकर ले जाने लगा और फिर जह्नु ऋषि ने क्रुद्ध होकर गंगा को पी लिया. बेचारे भागीरथ इन दोनों पाटों के बीच पिसकर रह गये.
संकल्प को परिभाषित करने वाले भगीरथ ने हार नहीं मानी और जह्नु से उसकी मुक्ति का निवेदन किया और जह्नु ने अपनी जंघा से गंगा को पुनः उद्गमित किया. इस प्रकार गंगा का नाम जाह्नवी पडा़. हिमालय पर प्रकट होने के कारण हिमालय की पुत्री और माँ गौरी की बडी़ बहन कहलायी और शिव ने भी अपनी बडी़ साली को शिरोधार्य करके सम्मानित किया.
यह सब आयोजन भगवान ने हम सबके कल्याण के लिए किया है. गंगा के कारण ही भारतमाता सुजला, सुफला, शस्यश्यामला है. गंगा, गाय, गायत्री, गीता और गोविंद हमारी संस्कृति के पाँच स्तंभ हैं. मगर हम क्या कर रहे हैं? यह बताने की आवश्यकता नहीं. बस इतना ही कहूँगा कि इन पावन धरोहरों को हम सँभालकर रखें. यदि नहीं तो हमें ना तो इतिहास हमें क्षमा करेगा और ना ही भूगोल. इस प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, यह तो कोरोना बनकर हमारी आँखें खोलने का प्रयास कर रहा है. क्या हम जागेंगे या फिर जागते हुए भी सोते रहेंगे.
द्वारा: सुधीर अधीर