कहानीलघुकथा
#शीर्षक
"आ अब लौट चलें" 💐💐
सैनिटोरियम के बेड पर लेटे-लेटे थक चुके समीर ने भारी मन से बिस्तर से उठ कर बंद खिड़की के शीशे से उस पार झांकने की कोशिश की...
दूर तक कुछ नहीं नजर आया,
" शायद शीशा साफ नहीं होने की वजह से ही"
खिड़की से मुँह सटाकर निकले भाप से गीला कर हाथ से साफ करने की कोशिश में उसे जोर से खांसी उठ आई। वह हताश हो कर बेड पर बैठ गया।
फिर तुरंत ही सिस्टर की दी गई कड़ी हिदायत के बाबजूद उसने खिड़की के दोनों कपाट खोल दिए।
एक अनवांछित चिड़ांध लिए हवा का झोंका उसके तन-मन पर छा गया। छटपटा कर समीर ने खिड़की बंद कर दी।
उसे वे दिन याद आ गये,
" जब वह गाँव की 'निर्मल हवा' जैसे
'मां का आंचल' तले रहता था "।
"साँझ होते ही वहाँ धुंध फैल जाती और अंधेरा का महासागर फैल जाता"।
तब उस अंधेरे से उसे डर भी नहीं लगता था। वह जीवन का एक अभिन्न अंग होता था। अब रात में सोने के लिए किए गये अंधेरे में भी उसे डर लगता है।
उस एक बार पिताजी से कुछ जरा सी बात पर कहा सुनी हो जाने पर उस सुरमई उजाले से निकल शहर के बिजली वाले लट्टुओं की तरफ आकर्षित हो कर,
"पलायन करने का मेरा फैसला स्वयं मेरे लिए कितना घातक साबित हुआ है, मुझसे अधिक और कौन जान सकता है? "
" शुरु में तो दम घुटता था फिर धीरे-धीरे
उन रंगीनियों में खोता चला गया मैं"। उसके इस घर छोड़ कर जाने वाले व्यवहार से पिता इतने दुखी हुए कि बीमार ही हो गये और बाद के दिनों में वह उनका सामना करने से बचता रहा।
योंकि वह भरपूर आर्थिक मदद करता रहा है।
वह घर नहीं जाना चाहता था यहाँ की भागदौड़ में रम गया था।
लेकिन आज खुद को पिता की जगह मृत्युशैय्या पर होने की कल्पना मात्र से बुरी तरह उदास हो गया है। रह-रह कर खुद से सवाल करने लगा है,
" क्या मुझे घर वापस माँ-पिताजी की ममतामयी पनाह में वापस लौट जाना चाहिए ? "
"क्या मेरा सरस जीवन शहर की अनवरत गतिविधियों में कंही खो कर खुद मुझ पर ही तो भारी पर कर ढ़हने वाला नहीं है ?"
उसकी बड़बड़ाहट नजदीक आती सिस्टर के जूते की निर्मम खट-खट आवाज में दब कर रह गई।
"गाँव की सीमाएं! जहाँ खत्म होती है वहाँ आज भी हवा में
"हो सके तो तू वापस आजा... ना " तैर रहा।
स्वरचित /सीमा वर्मा