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मैं व्यवस्था हूँ - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

मैं व्यवस्था हूँ

  • 78
  • 8 Min Read

मैं व्यवस्था हूँ
मैं आज की व्यवस्था हूँ
कंचनमृग से सम्मोहित इस देश के,
मृगतृष्णा से दिग्भ्रमित,
मन की अवस्था हूँ
मैं आज की व्यवस्था हूँ
मैं आज की व्यवस्था हूँ

मैं सर्वशक्तिसंपन्न
मैं संप्रभुतासंपन्न
मैं सब कुछ हूँ
मैं सब कुछ हूँ

सबके लिए 
कुछ ना कुछ हूँ
मैं सब कुछ हूँ
मैं सब कुछ हूँ

कुछ के लिए 
" जागते रहो "
कुछ के लिए 
" भागते रहो "

खुद के लिए 
" बस देखते रहो "
" बस फेंकते रहो "
" बस बेचते रहो "

बस बेचते रहो,
कुछ के लिए संवाद
कुछ के लिए विवाद
कुछ के लिए प्रमाद
और वो भी कम पड़ जाये
तो कुछ ना कुछ उन्माद

बस बेचते रहो
हाँ, सब कुछ 
उनके लिए 
जो हैं अपने
बाकी सबके वास्ते
सपने ही सपने

हकीकत कड़वी होती है
क्यूँ उसको यूँ
घूँट-घूँट भर पीते रहना
ढूँढ-ढूँढकर जीते रहना

सपने का अपना ही मजा है
सपने का अपना ही नशा है
बस उसको ही 
बूँद-बूँद कर पीते रहना
बस उसको ही 
घूँट-घूँट भर पीते रहना

खुले आँख तो 
कुछ ना कुछ
खोना पड़ता है
कब ना जाने 
किस-किससे
हाथ धोना पड़ता है
और सपने के लिए तो
सिर्फ सोना पड़ता है
सिर्फ सोना पड़ता है

हाँ, सपने के लिए 
सोते रहना ही जरूरी है
उन्मादजीवियों की तो
सोते रहना एक मजबूरी है 

हाँ, विकास लिए तो
संवाद जरूरी है
और विनाश के लिए तो
एक नया विवाद जरूरी है
अपने पैरों आप 
कुल्हाड़ी मारने को
बस उन्माद जरूरी है
चेतना का हर एक दीप बुझाने को
नफरत का एक झंझावात जरूरी है

मैं सामाजिक न्याय हूँ
संविधान के आदर्शों का,
हाँ, मैं एक पर्याय हूँ
अट्टालिका के साये में
पल-पल सिमटती सी
झोंपड़ी की आय हूँ
मैं सामाजिक न्याय हूँ

इस लिए
हाँ, इस लिए 
बस कागजों में दिखता हूँ
बस भाषणों में दिखता हूँ
कौडियों के दाम 
पल-पल बिकता हूँ

हाँ, मैं इतना सस्ता हूँ
मैं आज की व्यवस्था हूँ
मैं आज की व्यवस्था हूँ

द्वारा : सुधीर अधीर

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