कविताअतुकांत कविता
*ये अलाव*
अगहन पूस की दस्तक
सिहरती सुबह ठिठुरती रातें
सुदूर गाँवों की चौपालें
दिन के उजाले में
आबाद होती गुनगुनी धूप में
सूरज बन जाता है हीटर
गहराती शामें लाती है ठंडक
अलाव जला कर बैठ जाते हैं
बूढ़े बच्चे जवान दुशाले ओढ़े
तापते खुल जाते किस्से कहानी
कुछ अपनी कुछ पराई बातें
ये जलते अलाव बढ़ाते मेलजोल
बन्द कमरों की खामोशी से इतर
सरला मेहता
इंदौर
ये आँसू
समन्दर का खारा पानी
किसी काम का नहीं होता
पर अमृत बूंदें बरसाने का
यही बनता मूल स्त्रोत
ये आँसू हमारी आँखों से
ढलकते रहते हैं कभी भी
बहा देते हैं गुबार दिल का
खुशी हो चाहे गम हो
बरस पड़ते बिन बुलाए
कह जाते बात पते की
हल्का कर जाते मन को
देते आभास नौ रसों का
आँखों के समन्दर से
छा जाते हैं पलकों में
झर जाते जीवन नभ में
सरला मेहता
इंदौर
स्वरचित