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लंबी कहानी ...अंक ४
" मिनी की रुमानी दुनिया'" 💐💐
आज सुनते है मिनी की कहानी उसकी जुबानी...
पापा की अनायास मृत्यु के बाद ममा ने घर वापस नहीं जाने का निर्णय खुद ही ले लिया था। मैं सांतवी में पंहुच चुकी थी। तो उनके विचारानुसार शायद बीच सेशन में छोड़ कर चले जाने से मेरी आगे के पढ़ाई के तारतम्य बीच में ही टूट जाने का डर सता रहा था।
वे शायद उन सपनों को पूरा होते देखना चाहती थीं जो पूरे परिवार ने मुझे लेकर देखे हैं। उनकी इस भावना को समझने और समझाने के लिए तब मेरी उम्र बहुत कम थी। मैं आत्मकेंद्रित हो गई थी इतना आसान नहीं था उस असमय घटित अनहोनी के दायरे को समझना तो मैंने सब पर से ध्यान हटा लिया। मुझे दादी की याद बहुत आती थी।
सभी लोग कहते मैं बिल्कुल उनपर गयीं हूँ । वैसा ही उँचा कद, चमकता चेहरा सहज सौम्य स्वभाव,
" उंह अब पता नहीं ...
लेकिन हर मंगलवार को मुझे दादी के 'परसाद' की याद जरूर आती। जब दादी के सत्संग से लौट कर आने पर चंद पेड़े और लड्डुओं की खातिर उनके आंचल पकड़ कर झूल जाती थी यहाँ तक कि उन्हें हाथ-पैर भी नहीं धोने देती"
यह सब ही सोचती रहती और थोड़ी उदास रहती है। मेरे बालमन पर यह सब एक आघात की तरह था मैं बड़ी तो होना चाहती थी पर इस तरह नहीं।
उस दिन शाम में बॉलकनी में बैठी थी जब पिंकी की ममा रमोला आंटी आई।
मुझे विचारों में खोया देख कर ,
" क्या बात है मिनी ? बहुत चुपचुप सी हो।" कुछ ना बोलकर मैं ने सर झुका लिया।
रमोला आंटी सब समझ गई। फिर मेरे पास ही अपनी कुर्सी खींच कर बैठ प्यार से मेरे हाथ थाम लिए,
" देखो मिनी अब तुम इतनी छोटी भी नहीं रही कि अपनी खुशी खुद में ना ढ़ूढ़ सको और पिछली बातों में ही डूबी रहो"।
मैं हैरान,
" तो क्या करूँ आंटी ?"
" तुम एक अपनी 'हैप्पीनेस शॉप ' खोल लो ",
" जिसमें लोगों को खुशियां बांट सकोगी और एक मजेदार बात बताऊँ, तुम जितनी खुशी बांटोगी उससे दोगुनी खुशी तुम्हारे पास लौट कर आएगी "।
हैरान हो मैं बोल पड़ी,
"ओहृ... इस तरह तो मैंने सोचा ही नहीं "
सच्ची में सुबह उठ जब मैं पौधों में पानी डालती थी तो पापा कितने खुश होते थे" उनके दिए गये सुझाव पर सोच मुझे बहुत अच्छा महसूस हुआ मैंने ममा की ओर देखा वे भी एकटक मुझे ही देख रही थीं ,
उनकी दोनों बांहें मुझे अपने आगोश में लेने को बेताब मैं भाग कर उनके गले से लग गई उनकी आंखों से निकली आंसुओं की धार मेरे कंधे को भिगोने लगे। कितनी अकेली हो गई थीं वे पापा और उसके तुरंत बाद ही दादी के जाने के बाद बुबु, चाचू और दादा जी को संभालती हुई। कितना कुछ सहा भी तो है उन्होंने पापा की बीमारी में।
उस के बाद से ही मैं पूरी तरह बदल गयी थी। योंकि तब भी उनसे खुल कर कुछ कह पाने की इच्छा मेरी नहीं होती। लिहाजा पिंकी ही मेरी एकमात्र हमदम और दोस्त दिखती मुझे।
"क्रमशः "