कवितालयबद्ध कविता
पिछला कल
अतीत की जमी गर्द से
लिपटा कल
बस उसके ही दर्द में
सिमटा कल
बस उसके ही साये में
जीता पल-पल
ठहरावों की जड़ता के
निष्ठुर धागे से
पल-पल खुद को सीता कल
बासी पानी को बूँद-बूँद कर
पल-पल पीता कल
सिर्फ एक तनाव है
सिर्फ एक भटकाव है
पाँवों को हरदम रोकता
एक अजनबी पड़ाव है
हर नयी सुबह की राह में
कील ठोकता हुआ
एक जिद्दी ठहराव है
उसमें ही भटके रहना
बस उससे ही लटके रहना
उस दलदल में पाँँव फंँसाकर
अटके रहना
मन का एक विकार है
मन की नाभि में छिपा हुआ
रावण सा अहंकार है
और अगला कल?
एक मृगतृष्णा,
अतृप्त तृष्णा,
एक कंचनमृग सा
चौंधियाता सा पल-पल
अतिमहत्वाकांक्षा का
खोखला विस्तार है
" खुल जा सिमसिम "
बोलता सा
एक चिराग सा
पल-पल टिमटिम
खोखला सा
दोगला सा
एक झाड़-फूँक सा
चमत्कार है
महज एक तिलिस्म है
एक हवा के झोंके सी
नजरों के एक धोखे की
पल-पल बदलती किस्म है
ये दोनों मिलकर चुरा रहे
आज का हर एक पल
ये दोनों मिलकर मिटा रहे
हर लमहे की धड़कन में सिमटी
जिंदगी की हर हलचल
इन दो पाटों से बाहर आकर
इनमें खोयी जीवंतता को
जीवन की अनंतता को
पलछिन, पलछिन बाहर लाकर
इन दोनों ठहरे-ठहरे से
बेजान किनारों से
दूर तरंगों पर खुद को यूँ तैराकर
हर पल को पल-पल
ढूँढ-ढूँढकर
जीना ही जिंदगी है
इसमें सिमटे अहसास को
पल-पल कल में ढल रहे
हर एक आज को
बूँद-बूँद कर
पीना ही जिंदगी है
अब में सिमटे रब के
हर अहसास में
जीना ही बंदगी है
बस आज की मुठ्ठी में सिमटे
लमहों के आकाश में
जीना ही जिंदगी है
इसकी हर पाकीज़गी की
अंजुरी से
छलकते अहसास में
इसकी हर एक पंखुड़ी पे
ढलकते हर आज में
छोटी-छोटी सी खुशियों से
चहकते से,
महकते से
आसपास में
जीना ही जिंदगी है
बस जीना ही जिंदगी है
द्वारा: सुधीर अधीर