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"नन्ही मिनी की रूमानी दुनिया " 💐💐 - सीमा वर्मा (Sahitya Arpan)

कहानीप्रेम कहानियाँ

"नन्ही मिनी की रूमानी दुनिया " 💐💐

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लंबी कहानी... अंक ३
#शीर्षक
" मिनी की रुमानी दुनिया " ,💐💐
" मिनी ओ... मिनी "
पुकारती हुई उसकी प्यारी बुबु ने मिनी को गोद में उठा उसके आंसुओं से भरे भोले मुखड़े पर चुम्बनों की झरी लगा दी है।
मिनी ने भी जो अब डौगियों को देख कर बहुत खुश है बुबु के गले को दोनों हाथ से बांध कर किस्सी देने लगी है।
तभी दादी ने कहा ,
"अब उतर भी मिनी क्या सारी किस्सी बुबु ही को दे देगी,
" दादा जी से कह तेरे लिए डौगी मैंने मंगवाई है कुछ मेरे लिए भी बचा कर रख मेरी लाडो "
यह सुन दादा जी जोरों से हँस पड़े और मिनी ने शर्मा कर बुबु की गोद से उतर दादी की साड़ी थाम ली है।
तभी डब्बे से कूं-कूं की आवाज सुन हर किसी का ध्यान उधर ही चला गया।
मिनी उछल कर दादी की गोद में चढ़ गयी और बुबु को देख रही है।
जो नीचे बैठ कर डब्बा खोलने में लगी हैं डब्बे में बंद दोनों डौगी के भूरे-सफेद नर्म-नर्म मुलायम से बाल ...
" ओह् कितने प्यारे हैं मिनी आ उतर गोद से देख तो जरा छू कर " ।
मुस्कुरा कर 'नहीं' में गरदन हिला मिनी ने सर पीछे घुमा आंखें मूंद ली हैं।
दरअसल उसे थोड़ा-थोड़ा डर और झिझक सी महसूस हो रही है ।
" लेकिन बोलूँ तो कैसे सारे हँस नहीं देगें"
इसे समझ गई बुबु ने ही डौगी हाथ में ले मिनी की नन्हीं उंगलियों से स्पर्श करा दिए।
" ओ... वा...ओ ये कैसी मुलायम सी छुअन है? "
मिनी ने आंखें खोल डौगियों को देखा और धीरे से दादी की गोद से उतर सीढ़ियों पर बैठ कर हिम्मत बटोर उन्हें पास से देखने लगी है।
" हूँ... कितने नर्म-नर्म मुलायम लग रहे हैं मिनी की आंखें चमक रही हैं कभी उनके कान, कभी छोटी सी पूंछ तो कभी पांव को छू कर देख रही है ।
ओ...हो ये तो ममा भी आ गई और खुश भी दिख रही हैं।
मिनी ने भी अब मन से पापा मम्मा के साथ दूसरे शहर जाना स्वीकार कर लिया है। अब नन्हें प्यारे फ्रेंड जो मिल गए हैं।
लेकिन जब से मिनी मुम्बई आई है खोई-खोई सी है।
दादा-दादी, बुबु-चाचू सबको मिस करती है ।
वह सात कमरे और बड़े से बरामदे ,विशाल वृक्षों से हरे-भरे बागीचे वाला घर यादों से निकलता ही नहीं है ।
मुम्बई के इस 'मिड वे' सोसायटी के तीन कमरे में सिमटी हुई यहाँ के माहौल में रचने -बसने की कोशिश कर रही मिनी
उस दिन बॉलकनी में बैठी हुई सोच रही ,
" उफ्फ कितनी उंची-उंची इमारतें जिन्हें देखने के लिए भी सिर उपर उठाना होता है ,
" और यह उपर-नीचे आने जाने के लिए बड़ी , काली सी लिफ्ट पहले तो मैं इसमें प्रवेश करने में ही डरती रही पर अब धीरे-धीरे अभ्यस्त हो चली हूँ " ।
" ना भागदौड़ , ना उछल कूद बस बॉलकनी में बैठे-बैठे कबूतरों या गार्ड अंकल को देखते रहो "।
" इस समय दादी के पास रहती तो कितना मजा आता "।
तभी उसकी नजर बगल वाले ब्लॉक से निकल एक दादाजी जैसे व्यक्ति पर पड़ी वह खुशी से चिल्ला पड़ने ही को थी कि तभी ममा आ गई ,
"ओह वे भी उधर ही देख रही हैं "
ममा ने पहले उन्हें फिर उदास सी मिनी को देखा।
जिसकी पलकों की कोर में मोटे-मोटे आंसूं लुढ़कने को तैयार हैं देखती ही समझ गईं पूरे माजरे को।
उनके पीछे-पीछे उनकी उंगली थामे बिल्कुल मिनी जैसी ही लड़की पर नजर जाते मुस्कुरा दी ममा और मिनी से बोली ,
" वो देखो मिनी बिल्कुल तुम्हारी जैसी ही है वो गुलाबी फ्राक वाली दोस्ती करोगी उससे " ?
मिनी कुछ न बोल कर सर हां में हिला दी।
फिर लिफ्ट से उतर उन दादा जी के पास जा कर खड़ी हो गई वे दोनों चुपचाप।
वे उदास मिनी और उसकी ममा को देख मानों सब समझ गये थे।
"इधर आ जाओ हमारी 'बिन्नो रानी' ये पिंकी तुम्हारी नयी फ्रेंड " ।
मिनी ने ममा की ओर देखा
उनके इस प्यार भरे संबोधन को सुन...ममा भी हंस पड़ी हैं।
संकोच भरी मुस्कान के साथ मिनी ने पिंकी के हाथ पकड़ लिए।
मिनी को मुम्बई आए हुए करीब छः -सात महीने हो गए हैं ।
कहाँ गांव की हरियाली और कहाँ कंक्रीट के जंगल ?
लेकिन मिनी का दिल अब लगने लगा है उसे अच्छे से स्कूल में दाखिला मिल गया था।
दो- चार साथी भी बन गए थे। सोसायटी के अंदर ही पार्क में बने छोटे से पौंड के आस-पास कबूतरों का डेरा है।
मिनी को उनकी वह गुटर- गूं बहुत पंसद है ।
जिसे सुन वह उनसे ही सुर मिलाती हुयी पिंकी के हाथ पकड़ गोल-गोल घूमती और बोलती है ।
" गुड़-गुड़ , गुड़-गुड़ , गुड़- गुड़ , पुच्च " !
" गुड़-गुड़ , गुड़- गुड़ , गुड़-गुड़ , पुच्च "
आसपास के सारे लोग मिनी को बहुत प्यार करते हैं।

तभी पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा सामने स्टेज पर खड़ी मिनी ने देखा चारुलता ने दोनों हाथ उपर उठा रखे हैं। मन ही मन शायद ईश्वर का धन्यवाद कर रही हैं। एक मंद स्मित उसके होठों पर तैर गयी है।
ममा कितनी खुश दिख रही हैं आज, पापा की असमय मृत्यु के बाद वो कितनी गुमसुम सी हो गई थीं।
दादी तो झेल ही नहीं पाई मुझे छोड़ कर उन्हें भी अपने बेटे के पास जाने की जल्दी मच गयी थी।
तब 'मैं ' भी कितनी नादान और हठी थी।
" तेरह-चौदह बर्ष की उम्र भी कोई उम्र होती है पर उस उपरवाले की इच्छा के उपर क्या किसी की चली है कभी " ?
क्रमशः

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दादी की परी
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