कहानीसंस्मरण
" महापर्व " छठ विशेष ...💐💐
छठ पर्व वस्तुतः हमारी 'मानवता के प्रति हठ' की मिसालता कायम करनेवाला महापर्व है ।
छठ पर्व में हम नदियों की, उगते और ढ़लते सूरज देव की , केले के घौद की , गन्नों की समाज के लिए अछूत वाल्मीकि सम्र्पदाए के द्वारा बुने सूप को उठाने और निर्मल व्रतियों को श्रद्धानवत् निर्जल अर्ध्य देनें का है, पुनः इस व्रत में पण्डितों की आवश्यकता नहीं होती ।
अमीर हो या गरीब समाज के किसी भी तबके का कोई भी सहज ही घर में पूरी श्रद्धा से हृदय में आनंद समर्पण ले अनुष्ठान कर सकता है।
जब कोई वेदना से दुखी हो 'कष्ठी व्रत' करता है। " राह में भेटिएं एक कोढ़िया उस पर होई हें सहा...हृ... "
उसी की सहज स्वाभाविक अभिव्यक्ति हमें छठ के गीतों में मिलती है । आसपास के हर व्यक्ति को वह उसके ह्दय से ही उपजे भाव लगते हैं ।
साक्षात भगवान और भक्त के सीधे संवाद के रूप हैं ये गीत कोई सरगम कोई आलाप की जरूरत नहीं ।
मंगलकारी आशीर्वाद , समर्पित भाव के साथ ही सूर्यदेव से उपालंभ भी है , व्रतधारी सीधा सवाल पूछता है ।
" सब दिन उगै छहो दीनानाथ भोर -
भिनसरवा
आई भेल हो दीनानाथ एति बेर "😊
अब जरा सोचे इस भाव पर कौन ना नतमस्तक हो जाए ? भगवान भी होते हैं वे जवाब भी देतें हैं,
" रास्ते में कोई बांझिन , कोढ़ी , अंधरा मिल गया था इसलिए देर हुयी " ।
इस उत्तर के बाद फिर और कोई भाव बचता है क्या ? भक्त के सीधे-सीधे और अन्तरंग संबंध भगवान से है।
छठी मैया वस्तुतः 'सूरजमल' की मातृरूप ही हैं ।
आज कम उम्र की वधुएं बेटियां भी इस व्रत को थोड़े परिमार्जित रूप में अपना रही हैं , अच्छा लगता है देख कर कम से कम हमारी नयी पीढ़ी नदियों-तालाबों और सूर्यदेव की तरफ वापस लौट रही है।
नौजवानों का इस ओर झुकाव ही हमारे संगठित समाज के लोक स्वरूप का निर्माण करती है ।
अब आइए... जरा चलते हैं इस महा पर्व की तैयारियों की तरफ...😊😊
'ठेकुआ' !!!
कहने को तो एक खाद्य पदार्थ है। जो गुड़ और आटे से बनने वाला प्रसाद है... जिसे खा पाना हमारा बिहारियों का नाज़ है।
कनकनाती ठंड, कार्तिक मास में घर का कोना कोना पवित्र होना, बड़े सौभाग्य की बात मानते हैं हम। मेरा बचपन बिहार प्रांत के पटना जिले में बीता है।
याद हैं मुझे कैसे सुबह-सकाल हमारे पिताजी घर पर ही रिक्शेवाले को बुलबा लिया करते थे। फिर उसके रिक्शे को पाईप लगा कर अच्छी तरह पानी से धोया जाता था।
पवित्रता इस पर्व की नींव होती है। जिस पर बैठ कर हमारी माँ और दादी बड़ी भाभी के साथ घर के नजदीक ही 'दरभंगा-हाउस' के पास बने काली घाट पर गंगास्नान करने जातीं। एक साथ तीन पीढ़ी वाह... कितना सुहाना लगता। हम बच्चों को इससे दूर रखा जाता।
वे कितना लम्बा रास्ता तय करती थी,
लौटते वक्त वे चूड़ी खरीदती थीं। घाट पर ही बैठी नाईन से भर-भर पाँव आलता रंगवाती।
घर वापस लौट सब नहाय खाय का कददू भात खाते, और तब बारी आती छत धो -पोछ कर गेंहूँ सुखाने की।
जिसे मेरी दादी एक डंडा पकड़ कर स्वयं किया करती थी।
तब हमारा संयुक्त परिवार हुआ करता। इतने सारे लोग लेकिन फिर भी सारे काम हांथों-हाथ यों चुटकियों में संपन्न हो जाते। हम बच्चों के उठते ही माँ, दादी और भाभी मिल कर छठ का ठेकुआ बना चुकी होती थी। उन्हें इस तरह जुटे देख कर अगर आज का जमाना होता तो वो गीत सटीक उतरता,
"क्यूंकि सास भी कभी बहू थी " 🤗🤗
खैर...।
फिर हम सब मिल कर खूब अच्छे से तैयार होते। सभी चाची और भाभियां अपनी-अपनी 'धराऊँ साड़ी' पहन कर गंगाघाट की ओर गीत गाते हुए प्रस्थान करते जहाँ हमारे पिताजी एवं घर के सभी मर्द पहले से ही जा चुके होते ,
" उजे गंगाजल के झिलमिल पनियां...पनियां ... खेवे ला मल्हार ...
उजे होईहें ना ' शिवभोला' बाबू बहरिया दौरा घाट पंहुचाए...,
उ जे पेन्हू ना पार्वती देई पिअरिया भेलई अरग के बेर..." 💃💃
सँझिया अरग में घाट से लौटते हुए गरम-समोसे पेट भर कर और कुल्हड़ वाली खालिस दूध की चाय अहा...हा 😌😌 आज भी मुँह में चीनी की मिठास घुली है।
भोरिया अरग की तो बात निराली। ना जाने कब उठती थी मेरी चाची लोग,5 तरह की सब्जी, साग, दाल,चावल बन चुके होते थें।और पकौड़े की तैयारी हो चुकी होती थी उनकी। उतने बड़े मकान में झाड़ू पोछा हो चुका होता था। हम बच्चे सिर्फ उठ कर नहाते और तैयार हो जाया करते थे।
पूजा सम्पन्न होती और हम प्रसाद खा कर दीपावली के बचे हुए पटाखे सब छोड़ने में लग जाया करते। चाची, माँ, दादी और भाभी का काम दिन भर चलता रहता।
आज भी मेरे कानों में जब वो गीत सुनाई देता है तो उसकी तुलना मैं बेटियों की भ्रूणहत्या के नृशंस समाचार से अनायास कर बैठती हूँ जिसे जबतब सुन रोंगटे खड़े हो जाते हैं।ओह्ह् लिखते समय मैं आहें भर रही हूँ ,
" रुणकी, झुणकी बेटी माँगी ला ...
पढ़ल पंडिततवा दामाद हे छठी मईया सुनूँ ना अरज हमार , हे छठी मैय्या लीहीं ना अरग अपान...।"
हमारी दादी ,माँ तथा पिताजी !!!
वे बेटे और बेटियों में तनिक भी फर्क नहीं महसूस करते।
कितना कुछ करती थीं वो। वो हम बच्चों को एहसास हीं नहीं दिलाती थीं।
मेरे घर की औरतों के विचार कितने शुद्ध और पावन थे मेरी दादी कहतीं,
" देख दुलहिन, बबुनी के नया कपड़ा जरुर पहिरे के चाहिं, भले हमनी के पहनी जा कि ना "
यह याद करके अभी भी कलेजा फट पड़ने को आता है। यह हमारी बरसों की संजोई परंपरा है।
सुन कर लगता ही नहीं था कभी हम बहनें, भाईयों से कम महत्वपूर्ण हैं।
आज चारो तरफ देखती हूँ तो नयी उम्र की बहू-बेटियों में अपनी ही प्रतिच्छाया देख फिर से नवजीवन पा जाती हूँ। और रग-रग में नवसंचार भर उठता है।
मैं आज भी भूल नहीं पाती हूँ। मेरी परवरिश ऐसे ही वातावरण में हुई है। इतनी जल्दी थकने वालों में से नहीं 😊😊
बरसों पुराने परम्पराओं को संजोने में जुट जाती हूँ । माँ नहीं थकी, मेरी दादी नहीं थकी। शायद इसलिए मुझमें गुड़ की खुशबू बसी हुई है और आज भी मजबूती से कह सकती हूँ कि मेरी बेटियां और बहुएं हमारी इस परंपरा को और भी आगे ले जाएगीं।
"ओ रे दुल्हनिया अइहें सब मिलजुल
कद्दू के सब्जी और अरवा भात
पहन के बनारसी, सजा के बखरा सेनूर
अगोरव हम छठि माई के ड्योढ़ियां
गुड़ के भेलि और गैया के दूधवा
बबुआ सब मिल कर उठैहें दौरियां।
ले चलिहें गंगा के तीर..........
फलिहें फुलिहें सब बचबा और बबुनी
अब सासुमाँ की ऐसी पुकार सुन कौन बहू और बेटा न आएगें !!
ज्यादा विस्तार में न जा कर मैं सबों की मंगल कामना करती हूँ🙏🏻🙏🏻💐💐
सीमा वर्मा