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साडी़ बिच नारी है कि.... - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

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साडी़ बिच नारी है कि....

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" साडी़ बिच नारी है किनारी बिच साडी़ है
    साडी़ ही की नारी है कि
नारी ही की साडी़ है "
   द्रौपदी-चीरहरण के संदर्भ में महाकवि भूषण की ये पंक्तियाँ आज के इस भ्रष्टयुग, मतलब कष्टयुग,  मतलब कलयुग, मतलब कलियुग में भी कम सार्थक नहीं. साडी़ की सेल लगते ही उनके कांचनमृगी जंप करते जंपर.. साॅरी..बंपर आफर  कितनी भयंकर आफत की भूमिका लिखते हैं, इसकी पीडा़ अरण्य-जीवी राम के बाद सिर्फ कर्ज-जीवी पति नामक निरीह प्राणी ही समझ सकता है. यह मृगतृष्णा, यह चीरपिपासा कितना गंभीर तमाशा बन जाती है, इसे मेरे जैसे विवाहित भुक्तभोगी ही अनुभव कर सकते हैं और अगर कोई मन ही मन विजयभाव से आत्ममुग्ध मातृशक्ति यदि सहानुभूति रूपी "लाइक" एक सांत्वना-पुरस्कार के रूप में छिड़क दे तो उसका भी स्वागत है.


   हाँ, तो मैं कह रहा था कि साडी़ और नारी, इन दो पाटों के बीच पिसायमान, बिखरायमान, बकरायमान इस अनाडी़ का अस्तित्व तो आजकल के पाॅपकाॅर्न पैकेट में भरी हवा में तैरते से मक्का के दो-चार दानों की तरह होता है जो श्री 420 की " हरी थी, मन भरी थी " वाली, हरे-भरे खेत की आजादी से वंचित ना जाने किसकी जेब में श्री चार सौ बीसी  हरित-क्रांति लाकर पैकेट में कैद होकर सिर्फ एक भ्रांति जैसा अहसास बन जाता हैं.

   पति-पत्नी और एक पति-मित्र ने एक साथ पिक्चर देखने का कार्यक्रम बनाया. पति-मित्र तो एक घंटा पहले ही मित्र के घर पहुँच गया मगर 
भाभीजान तो बाहर आने का नाम ही नहीं ले रही थी.  उनका हर एक      
" बस पाँच मिनट " ब्रह्रमा के पाँच मिनट बनकर समय की सापेक्षिता का सिद्धांत समझा रहा था. जैसे-तैसे उनके दर्शन सुलभ हुए तो यह अनाड़ी देवर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार बैठा,

 " भाभी जी, बहुत लेट हो गये. अब विजय टाकीज तक जाने में भी आधा घंटा लगेगा "

 " विजय टाकीज जाना है ?  पहले क्यों नहीं बताया ?  अब तो अगला शो ही देखने को मिलेगा ", यह कहकर पुनः अंतर्ध्यान हो गयी.
     
         पति-मित्र निःशब्द रह गया. तभी विवाहित, मतलब, विवाह की दलदल में समाहित मित्र चेहरे पर अनुभव बिखेरता हुआ बोला,

" आप नहीं समझेंगे. " जाके पाँव ना पडी़ बवाई, वो क्या जाने पीर पराई ". भाई, कल ही गयी थी विजय टाकीज यही साडी़ पहनकर. अब यदि फिर यही साडी़ वहीं पर आज भी पहनकर गयी तो सामाजिक अवमूल्यन नहीं हो जायेगा? अब दूसरी साडी़ और उससे मैच करती पूरी टीम को मैदान के पिच पर लाते-लाते अगला शो आज वाला होगा या फिर कल वाला, यह तो ब्रह्मा जी भी नहीं बता सकते. देखो, बंधु,  हम ब्राह्मणों में दो वेद वाले द्विवेदी, तीन वेद वाले त्रिवेदी और चार वेद वाले चतुर्वेदी तो होते हैं मगर इस पाँचवे वेद की थाह पा सकने वाला पंचवेदी कभी देखा या सुना है आपने ? "

      शादी के अगले दिन हम दोनों खुद की देखी हुई फिल्मों के नाम एक दूजे को बता रहे थे मगर फिर मुझे इस टाईमपास को बंद करना पडा़ क्योंकि मैडम हर फिल्म में नायिका के परिधान का बखान कर रही थी और मैं भावी आर्थिक संकट को भाँप कर, पतली गली नापकर बाहर निकल लिया. ठीक उसी तरह जैसे हर सरकार हर मंदी से बाहर आने का रास्ता मधुशाला या पेट्रोल पंप में ढूँढती है.
  
   साडी़ पत्नी के तन पर ही नहीं, उसके मन पर भी विराजमान रहती है और हर संवाद को साडी़ की ओर खींचकर ले जाने में निपुण होती है. अपने तन-मन को साडी़मय रखते हुए पत्नी पति के धन को भी उसके पल-पल होते अवमूल्यन का बोध करा देती है, इसका मर्म बडे़-बडे़ अर्थशास्त्री भी नहीं जान सकते.

    मार्केटिंग की किताबों में भले ही कस्टमर को भगवान जैसा सम्मान दिया गया हो मगर साडी़ का बिल चुकाते वक्त कस्टमर "कष्ट से मर" जाने जैसा अहसास प्राप्त करता है और " जान बची और लाखों  पाये " वाला भाव और  " ओखली में सिर धरा तो मूसल से क्या डरना " जैसा धैर्य धारण कर लेता है. भीतर से चाहे कितना भी अधीर हो  बाहर से तो सुधीर ही दिखना पड़ता है.

   वैसे तो साडी खरीदने के कारण अनंत हैं, अनंत भगवान के अनंत अवतारों के अनंत कारणों की भाँति  मुख्यतः साडी़ खरीदने के सबसे अपरिहार्य कारण दो हैं.  " कालोनी में हर किसी के पास ऐसी साडी़ है " और  " कालोनी में किसी के पास भी ऐसी साडी़ नहीं है." पहला कारण दीन-हीन भाव पर विजय पाने के लिए और दूसरा अपनी इस शानदार, जानदार उपलब्धि से चकाचौंध सहेली को देखकर आत्ममुग्ध होने के लिए है और इस तरह यह साडी़ नामक वायरस तेजी से फैल जाता है जिसके कारण पुरुषों को कभी-कभी कर्ज के वेंटिलेटर की आवश्यकता पड़ जाती है.

     नारी और साडी़ एक दूजे के पूरक हैं. पहले विधाता ने किसकी रचना की, यह तो वे भी भूल गये होंगे. मगर कलियुग के इस जीव और मृत्युलोक के इस असहाय पति नामक प्राणी के लिए साडी़ शब्द की अवहेलना उसे आजीवन निःशब्द बना सकती है. कोर्ट में आने वाले अधिकांश दांपत्य-विवादों के मूल में यह साडी़ ही है. यहाँ तक कि मरने के बाद भी वैतरणी में साडी़ का ही अंतिम आभासी अहसास होता है. इस वैतरणी को पार किया, मतलब, गंगा नहा लिये. मगर गृहस्थ पति को तो इस गंगा के तट पर बसे हर तीर्थ पर पत्रं पुष्पं अर्पित करना पड़ता है और  इस गृह-शांति-मंत्र का जाप करना पड़ता है, 

" सासू तीरथ, ससुरा तीरथ, तीरथ साला-साली है
दुनिया के सब तीरथ झूठे, चारों धाम घरवाली है "

 मासिक जीएसटी ( गृह शांति टैक्स ) से बचने का सबसे सरल, सटीक और दूरदर्शी उपाय यह है कि पहली तारीख को ही पूरा वेतन गृहलक्ष्मी के चरणों में अर्पित करके दोनों खाली हाथों को समर्पण की मुद्रा में जोड़कर भक्तिभाव से गुनगुनायें, 

   " तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा "

   इससे गृहलक्ष्मी के कोपभवन में जाने की संभावना कम हो जाती है और नारीशक्ति में क्षमा और करुणा का भाव जाग सकता है और आसन्न संकट दूर भाग सकता है.

    साडी़ के लिए संसाधन जुटाता हर पति गृहस्थी की इस गाडी़ में एक कल ही तो है जो आज के बाकी सभी खर्चों को कल पर टालता हुआ कलियुग का पुनर्नामकरण करके उसे कलयुग बनाने को विवश है.

   अंत में आत्मरक्षाकवच के रूप में एक परमसुंदर सत्य प्रकट कर रहा हूँ.
साडी़ नामक इस भारतीय परिधान के सामने विश्व का कोई भी परिधान 
 नतमस्तक होने को विवश है. इसकी लक्ष्मणरेखा में सिमटा नारी का मर्यादित रूप दिव्य और अद्भुत है जो परिवार की भाग्यरेखा को अक्षुण्ण रखता है और मन को यह अलौकिक अनुभूति कराता है,

 " नारी, तुम केवल श्रद्धा हो ".

द्वारा : सुधीर अधीर

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