कहानीलघुकथा
*मील के पत्थर*
सड़कें दूर तक जाती हैं, कोई ओर न छोर। जब भी दोराहे, तिराहे व चौराहे पर मिलती हैं, बयाँ कर देती हैं अपनी अपनी व्यथा। दिल्ली व मुंबई की सड़कें मिली नहीं कि शुरू हो जाती हैं दोनों पक्की वाली सहेलियों की गुफ्तगू। मौका भी अरसे बाद मिलता है मुलाक़ात का। क्या करे आखि ठहरी तो बातूनी जनानियाँ ही ना।
मुंबई--भई, मैं तो ठहरी चकाचौंध भरी बॉलीवुड नगरी की। मेरे महानगर को कहते हैं आर्थिक राजधानी। लेकिन सारे स्टार्स की गाड़ियाँ आती हैं और जाती हैं। तुम्हारा आशियाना तो राजधानी है। मेरा क्या ?
दिल्ली--अरे रे रे ए ए, तो क्या हुआ। यहाँ तो दिन भर राजनीति की बिसात पर चालें कुचालें चलती रहती हैं । और आंदोलनों का पूछो ही मत। पार्टी नेताओं का जमावड़ा, किसानों, छात्रों आदि का धरना। अन्ना हज़ारे जैसे प्रबुद्ध लोगों का सत्याग्रह। मेरी छाती पर मूंग दलती हैं गाड़ियाँ। तुम्हारे यहाँ तो लोकल रेलगाड़ियाँ तुम्हें थोड़ा सुकून दे देती हैं।
मुंबई-- काहे का सुकून बहना। बारिश मेरा हुलिया ही बिगाड़ देती है। ऊपर से ये लहराता समन्दर। लोग ऐसे कि सपरिवार हुजूम ही चला आता है। न दिन देखते न रात।
इंडिया गेट, एस्सेलवर्ल्ड,
बीच, सस्ते बाज़ार, सिद्धि विनायक आदि देखने। ज़रा चैन नहीं।
दिल्ली--पर्यटक तो मुझे भी रौंध डालते हैं। और निर्भया जैसे काण्ड तो आम बात हो गई है।
फ़िर भी बहन, हम लोगों को जोड़ते हैं। हमारे बगैर जनता का जीना दूभर हो जाएगा।
मुंबई--सच कहती हो, हम हैं तो रिश्तें हैं। अरे हम ही तो हैं चश्मदीद गवाह इतिहास की घटनाओं की। आज़ादी का जश्न हम पर से ही गुज़रा है।
दिल्ली--सौलह आने सच कहती हो।
हमारे किनारे ही रात में गरीबों का बसेरा व दिन में रोजी का ठिकाना बनते हैं।
दोनों एक साथ बोलती हैं, " हम 'चलते रहो' का संदेश प्रसारित करने वाले माइल स्टोन्स हैं।"
सरला मेहता
इंदौर